खजाना — मेरे दादा की अलमारी
लेखिका: Meeta S Thakur
हमारा परिवार कभी बहुत बड़ा हुआ करता था — ताया-ताई, चाचा-चाची, उनके बच्चे, और हम सब भाई–बहन मिलकर मानो एक क्रिकेट टीम बनाते थे। गर्मियों की छुट्टियों में घर का हर कोना बच्चों की हँसी, शरारत और कहकहों से गूंज उठता था। कहीं नींबू की चोरी हो रही होती, तो कहीं चुपके से आम तोड़कर नमक में लपेटे जा रहे होते।
दादा का कमरा हमारे लिए एक रहस्यमयी दुनिया था। वहाँ एक अलमारी थी, जिस पर हमेशा ताला जड़ा रहता था। बचपन की उत्सुकता हमें सोचने पर मजबूर करती — क्या छिपाया है दादा ने उस अलमारी में? सोना? चांदी? कोई खज़ाना?
एक दिन मैंने दादा से पूछ ही लिया —
“क्या है उस अलमारी में?”
उन्होंने मुस्कुरा कर कहा, “सोने–चांदी और हीरे से भी कीमती चीज़ें।”
मैंने तुरंत लपक कर कहा, “तो मुझे दे दीजिए।”
उन्होंने एक रुपये का सिक्का मेरी हथेली पर रख दिया और बोले,
“जब तुम इसके क़ाबिल हो जाओगी, तब मिलेगा।”
वक़्त गुज़रता गया। मैं पढ़ने में खोती चली गई — किताबें मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गई थीं। स्कूल की लाइब्रेरी में ज़्यादातर वक्त बीतता। प्रेमचंद, मन्नू भंडारी, चित्रलेखा… नौवीं की उम्र में मैं साहित्य से प्रेम करने लगी थी।
एक दिन दादा ने कहा, “चित्रलेखा” पढ़नी है, लेकिन कहीं मिल नहीं रही।”
मैंने ठान लिया कि उन्हें वो किताब दूँगी। स्कूल की लाइब्रेरियन से खास आग्रह करके किताब इशू करवाई, और बड़े गर्व से दादा के पास पहुँची —
“ये लीजिए, सिर्फ़ तीन दिन के लिए है।”
दादा की आँखों में चमक थी। उन्होंने पूछा, “और क्या-क्या पढ़ा है तुमने?”
मैंने पूरी फेहरिस्त गिना दी।
वो कुछ देर चुप रहे, फिर बस मुस्कुराए।
कुछ दिन बाद, मेरे जन्मदिन पर उन्होंने मुझे बुलाया और एक चाबी दी — “अब तुम उस खजाने की हक़दार हो।”
मैंने अलमारी खोली… और चकित रह गई।
वहाँ किताबों का समंदर था — सुनहरी जिल्द वाली मोटी किताबें, रंग-बिरंगी चित्रकथाएँ, आध्यात्मिक ग्रंथ, साहित्यिक उपन्यास, और खुद दादा के नोट्स से भरी डायरी जैसी किताबें।
“ये मेरी लाइब्रेरी है,” उन्होंने कहा, “अब से तुम मेरी पहली पाठक हो। दो किताबें उधार ले सकती हो।”
बस फिर क्या था — यह एक सिलसिला बन गया।
किताबों ने मुझे और दादा को एक अनोखे रिश्ते में बाँध दिया — एक ऐसा रिश्ता जो शब्दों, विचारों और हाँ पुस्तकों से बना था।
दादा अब नहीं हैं।
लेकिन वो अलमारी… आज भी मेरे पास है। उसमें रखी कुछ किताबें आज भी मेरे साथ चलती हैं — और हर बार जब मैं कोई किताब खोलती हूँ, तो लगता है जैसे दादा की वो शांत, आत्मविश्वास से भरी आवाज़ कानों में गूंज रही हो:
“अब तुम इस खज़ाने की असली वारिस हो।”
आपने भी कभी अपने किसी बड़े से ऐसा कोई “खज़ाना” पाया है?
मुझे ज़रूर बताइए — कहानियाँ बाँटने से ही तो रिश्ते बनते हैं।
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