पापा की छोटी-माँ

पापा की छोटी माँ

राखी का दिन था ,दिनभर का फैला काम समेटते शाम होते ही मैं थकान से चूर हो बिस्तर पर गिर पड़ी।
आज बात ही नही हो पा रही थी पापा से,सुबह से कोई न कोई काम आ ही जा रहा था । 
फुरसत हो कर कॉल लगाउंगी के चक्कर में शाम हो गई थी । खैर, मैंने पापा को फोन लगाया, उधर से बड़ी ही तीव्रता से फोन उठा लिया गया ,मानों मेरा ही इंतज़ार हो रहा हो, इससे पहले की मैं कुछ बोलती, मम्मी की गुस्से भरी आवाज़ सुनाई दी,"अब फुरसत मिली है तुझे , एक बार अच्छे से बात कर लेती पापा से ,आखिर टाइम ही कितना लगता है,तुझे पता है,सुबह से मुंह फुलाये घूम रहे है,बुआ एक बार आ कर लौट चुकी है,पर अभी राखी नही बंधवाए है ", कहते हुए मम्मी ने पापा को फोन पकड़ा दिया ।
इधर मन मे कई आशंकाए लिए की पापा बात करेंगे कि नही मैंने धीमे से "हेलो" कहा और उधर पापा के मन मे भरी नाराज़गी की बर्फ पिघल कर ममता की नदी बन गई,बड़े हो आद्र स्वर में बोले', तू आई नही बेटा, आ जाती तो अच्छा होता ,तुझे देख कर मन को सब्र मिल जाता है " ।
"हाँ',पापा जल्दी ही आऊंगी , अच्छा वो जो राखी मैंने भेजी थी वो बंधवा लो न आप बुआ से ,नही तो बुआ आपसे नाराज़ हो जाएंगी", कहते हुए मैं बनावटी हंसी हंस पड़ी ।
"ठीक है, आती ही होगी बुआ तेरी, बंधवा लूंगा राखी, तू अपना ख्याल रखना "।
कहते हुए पापा ने फोन रख दिया,मैं जानती थी कि पापा और मेरे बीच बहुत संवाद की ज़रूरत ही नही थी ,मेरी आवाज़ सुन कर ही मानो उन्हें सब मिल जाता था ।
पापा ने मुझे एक पदवी दे रखी थी "छोटी-माँ" ,एक दिन की बात है , दादी घर आई हुई थी,
 मुझे,पापा का हर काम करते देख बड़ी खुश हुई ,पापा से मेरी तरफ की तो पापा बोले,"माँ जानती हो ये मेरी "छोटी-माँ" है ,और कहते हुए खुद रुआंसू हो गए, ।
सच मे मैं पापा की छोटी-माँ ही तो थी, पापा का हर काम मैंने बचपन में ही अपने उपर ले लिया था ,पापा के मुंह से कुछ निकल नही की उनके सामने सब हाज़िर होता ।
पूरे घर में केवल मैं और पापा ही "मॉर्निंग-पर्सन " 
सुबह जल्दी उठ जाना, परमात्मा की बातें करना,क्यारियों को ठीक करना बगीचे में पानी डालना, हमारा नित्य क्रम था ।

पापा और मैं साथ ही खाना खाते थे, मैं हर जगह पापा के साथ रहती,भाई-बहन मुझे पापा की "चमची" कह कर बुलाते ,पर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता

पापा आयुर्वेदाचार्य थे,उनकी कौन सी किताब किस शेल्फ में है,कौन सा खरल कहाँ रखा हुआ है ।
किस फ़ाइल में कौन सा डॉक्यूमेंट है ,ये सारी खबर मुझे ही रहती।
शम्मी कपूर ,देवानंद और किशोर दा के गाने और फिल्में हम दोनों के ही फेवरेट थे। दूरदर्शन पर कोई पारिवारिक मूवी देखना या  कस्बे की एक मात्र लाइब्रेरी से कोई पुस्तक लेना, शुक्रवार का बाज़ार करना या पापा की राजदूत मोटर साइकिल पर बैठ हवा से बातें करना,हर बात में मैं पापा के साथ होती।
जान-पहचान वाले कहते "डॉक्टर साहब,बिटिया को इतना लाड़ मत कीजिये ,पराया धन है ,कल को ससुराल चली जायेगी तो अताह दुख होगा आपको "।
उन लोगो के ऐसा कहने पर पापा अपने दर्द को छिपाते हुए मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहते"ये तो मेरी "छोटी-माँ" मैं इससे से उतना प्रेम नही करता जितना ये मुझसे करती है" ।
राखी के दिन बुआ को घर आने में समय लगता था,मैंने एक दिन पापा की कलाई सुनी देख कर अपने हाथों की बनाई राखी बांध दी,बस उस दिन से मानों नियम हो गया,फिर हर साल पहली राखी मैं ही पापा को बांधा करती ,बुआ का नंबर दूसरा ही होता ।

समय अपनी गति से बीतता रहा, पहले पढ़ाई के लिए शहर से निकलना हुआ ,फिर नोकरी और फिर विवाह,पापा की और मेरी जुगलबन्दी टूट गई,हर नए रिश्ते और ज़िम्मेदारियों में उलझते हुए ,संवाद भी कम होते गए ।

पर पापा वही रहे,आज भी मेरे घर  जाने पर वह चपल बालक की भांति खुश हो जाते है ।
किसी मित्र का फ़ोन आ जाये या आगमन हो जाये तो बड़े गर्व से इठला कर कहते है, "आज नही मिल सकता यार,मेरी "छोटी-माँ" घर आई है ।

मुझे खुश रखने का हर प्रयास करते ,और जब मैं उनका काम करती,मसलन खाना परोसना ,कपड़े इस्त्री करना ,तो वो का कनखियों से मम्मी को देख कर बड़े गर्व से मुस्कुराते , मानों उन पर रौब झाड़ रहे हो, मम्मी भी मज़े लेते हुए कहती, "हां हां भई, छोटी माँ जो आई ,जो दो दिन बाद चली भी जाएगी ,और उनके इतना कहने पर पापा के आंखों में फिर उदासी तैरने लगती ।

सच , कि बेटियां पराई होती है, पर इस परायेपन से  प्रेम-भावनाएं और संवेदनाओं का एक बेहद मजबूत धागा बंधा हुआ है, जो बेटियों को कभी पराया नही होने देता ।
और इसी तरह मैं सदा ही अपने पापा की "छोटी-माँ" रहूंगी ।

मीता. एस. ठाकुर 
Aks श्रीमती हाकुना मटाटा

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