साँवले बच्चे

यह बात पहले कोरोना काल की है ।
पिछले कुछ समय से स्कूल के पिछले भाग में कंस्ट्रक्शन चल रहा था । स्कूल की दूसरी बिल्डिंग लगभग तैयार थी ।फ्लोरिंग और रंगरोगन होना बाकी था ।
स्कूल परिसर में ही पीछे की तरफ मज़दूरों की 2-3  झोपड़ियों बनी हुई थी ।

कोरोना काल के दौरान बच्चे स्कूल नहीँ आ रहे थे, स्कूल से ही ऑनलाइन क्लासेज चल रही थी ।
रोज़ क्लास लेने के बाद मैं अक्सर खिड़की से उन कच्चे घरों को देखती, सुबह सुबह चूल्हे से उठता धुंआ, गुनगुनी धूप में पत्थर की चीप पर बैठ नहाते बच्चे , उनकी कुपोषित काया पर सरसों का तेल रगड़ती उनकी माँ।
छोटे से आंगन में बिछे बोरे पर खेलता शिशु । छत की आगे की तरफ निकली हुई लोहे की रॉड  पर टँगा पिंजरा और उसमें कैद एक  टुईयां मिट्ठू ,जो बोलता कम और चीखता ज्यादा था ।
उनकी अपनी ही दुनिया थी , हमारी और उनकी दुनिया में जमीन आसमान का अंतर था ।

फ्री पीरियड में जहाँ बाकी टीचर्स अपने मोबाइल स्क्रीन में डूबे रहते ,मैं समय निकाल कर कंप्यूटर लैब की खिड़की से उन्हें देखा करती ।
मेरे आकर्षण का केंद्र थे उन मज़दूरों के बच्चे , कत्थई रंग के बच्चे, ठंड के दिनों में जहाँ हम ऊनी कपड़ों से लदे होते थे,वे एक मामूली स्वेटर पहने नंगे पैर रबर के गुड्डे कि तरह उछल कूद मचाते थे । ठंडे पानी से उन्हें नहला कर उनकी माँ उनके पूरे शरीर पर सरसों का तेल मल देती तो बच्चे चमकते नज़र आते ।
स्कूल का प्ले ग्राउंड और गार्डन में लगे झूले सब वीरान थे ।
मज़दूरों के बच्चे अक्सर गार्डन में खेलने आ जाते ,उन झूलों पर झूलते हुए वो मानो परीलोक में खो जाते ,ये सब तो उनके लिए सपना ही था, 
जिन झूलों पर वे स्कूल के बच्चों को खेलता देखते ,उसकी हसरत लिए वे इंतज़ार करते कि कब  स्कूल खाली  हों और वे उनका मज़ा ले सके ।
अब भी जबकि स्कूल की विशाल बिल्डिंग खाली थी,उन्हें स्कूल ग्राउंड में खेलने की इजाज़त नहीँ थी ।
वे शायद उस वक्त खेलते जब स्कूल का सारा  स्टाफ चला जाता एक दिन स्कूल ख़त्म होने के बाद भी मुझे स्कूल में ही किसी काम से रुकना पड़ा तो मैंने देखा कि वो स्कूल में बने छोटे से पार्क पर लगे अलग-अलग तरह के झूलों पर झूल रहे थे,उनके चेहरे पर मानों विधाता ने खुद अपने हाथों से खुशी मल दी हो,इतनी सौम्य भावनाएं दिखनी दुर्लभ हो गई है ,सहसा मैं उनसे जल उठी क्योंकि ये खुशी इतनी शुद्ध थी की मुझ जैसे जीवन में उलझे हुए प्राणी के लिए तो उपलब्ध ही नही थी 
पर उनसे ईर्ष्या करते हुए दूसरे ही क्षण मैं ग्लानि से भर गई ।
उनकी खुशी का हिस्सा बन कर मैं भी कुछ पा लेना चाहती थी 
 उन्हें आवाज़ दे कर पास बुलाया और बैग में जितने भी टॉफी-बिसकिट्स रखे थे उनमें बराबर बांट दिए  उन्होंने "थैंक यूं" तो नहीं कहा, पर उनकी आंखों की चमक ,चेहरे का उल्लास ने मुझे उजास से भर दिया ।
उनके सांवले गुदम्बी रंग के चमकते चहरे हमेशा मेरे जेहन में  उभरते रहते है और हर बार उनके चेहरे की दुर्लभः खुशी के भाव  याद कर के  मैं भी आनंद से भर जातीहूँ ।

Mrs Hakuna Matata


Comments

Kamlesh Solanki said…
मीता,
वैसे तो तुम्हारी लिखी हुई सभी कहानियां मुझे बहुत पसंद है, क्योंकि तुम्हारी लेखनशैली और कनेक्ट करती हुई भाषा के साथ साथ विषय इतने अच्छे होते है कि जी करता है कहानी खत्म ही ना हो । और मैं पढ़ता ही रहूं ।
लेकिन इस कहानी ने जो मुझे सबसे ज्यादा अपील किया वह है इसका शीर्षक "सांवले बच्चे" ।
सही में बहुत अच्छी कहानी लगी... लेकिन जल्दी खत्म हो गई ।
Meeta S Thakur said…
बहुत धन्यवाद 🙏