नर्मदा के सुस्ताते घाट

नर्मदा के सुस्ताते तट

बोझिल दोपहर और घिर आने को आतुर शाम कुछ ऐसे ही होते है सर्दियों के दिन ।
सर्दियों के दिनों की गर्माहट बटोरने के लिए मैं निकल पड़ी नर्मदा  घाट की तरफ, गांव की अपनी ही एक दुनिया होती है, चौखट पर बैठ बतियाती महिलाएं ,गांव की चौपाल पर चर्चा करते बुजुर्ग बेपरवाह खेलते बच्चें ।
  यहाँ हवा में इत्मीनान है ,खैर गांव की पगडंडियों पर दौड़ती कार ,दोनों तरफ लहलहाते खेत कच्चे-पक्के मकान पार करते हुए घाट पर पहुँच ही गई। ये है नर्मदा का "बिजना" घाट ,शहर के अन्य घाटों से अलग ,शांत,सुस्ताता,अलसाता, ऊंघता सा घाट ।
यहाँ समय की गति धीमी सी प्रतीत होती है । दो-पहिये ,चार-पहिये वाहनों की रेलपेल नहीं है,कहीं मोबाइल की घंटी का शोर नहीं ,सैलानियों की फ़ौज नहीं ।
नर्मदा का शांत बहता ,तरंगों के साथ अपने गंतव्य की और गति बनाता  पानी और पानी पर अठखेलिया खेलती सूरज की किरणें , तट पर घास चरते गाय, बैल, बकरी, आधे कपड़े पहने बच्चे , शून्य में निहारते साधु सन्यासी और नदी की गोद में तैरती नाव ,सारा दृश्य मनोरम था, यहाँ समय थमा हुआ था,सुस्ताता हुआ, गुनगुनाता हुआ ।
खेतों में अरहर,गेंहू, मटर की फसलें लहलहा रही थी । सब्जी की बुआई भी बहुत थी ,जाने कितने तरह के पंछी अपने कलरव से सन्नाटे को चीर रहे थे ,गाय-बैलों के गले में बंधे घुँघरू अलग ही संगीत पैदा कर रहे थे ,उस पर ग्रमीणों की मिठास भारी ठेठ बोली कानों को अलग ही सुकून दे रही थी ।
गांधी जी ने कहा था , भारत गांवों का देश है ,अब कितने गांव रह गए है ये तो मैं नहीं जानती पर गांव में जीवन अपने उरूज़ पर होता है ये मैं जानती हूं ।ऐसा लगता है जैसे प्रकृति खुश है यहाँ, पेड़-पौधों पर धूल नहीँ जमी है ,धरती के सीने पर सीमेंट नहीं बिछी है , घास नकली नहीं है, दूब पर नंगे पैर चलाने से कैसी स्फूर्ति सी आ जाती है ।
मन कैसा बावला हो जाता है यहाँ आकर, लगता है यहीं ठहर जाओ पर हमें भागने के इतनी आदी हो गए है कि, ज्यादा सुस्ताने से भी घबराहट होने लगती है ।
सयाने बताते है कि बरसात में गांव डूब जाया करते थे,पर ये सब तो बीते जमाने की बात हो गई ,अब तो घाट सिमट गए है,नदी का आकार भी सकरा होता जा रहा है।
उम्मीद करती हूँ कि ये घाट सालों साल तक यूँही अनछुआ रहे ।आधुनिकता की दौड़ में शामिल न हो, पर्यटन स्थल बन कर केवल सेल्फी पॉइंट न बन कर रह जाये ।
गोधूलि की बेला आ चुकी थी ,सूरज नदी के तट पर पानी में समाता हुआ प्रतीत हो रहा था ।
पतिदेव कार का होंर्न बजाए जा रहे थे ,मुझे मजबूरन उठना पड़ा  नर्मदा के बहते पानी और इस शांत तट से ये वादा करते हुए की "मैं फिर आऊंगी" मैं चल दी उस  और जहाँ ज़िन्दगी भागती है ,जहाँ हर दिन एक रेस है ।

मीता. एस .ठाकुर 

Comments

Kamlesh Solanki said…
Kahani mujhe bahut acchi lagi aapka likhane ka Andaaz samanya si baat Ko bhi khas banaa deta hai aur padhne wale ko bhi chijen dikhai dene lagti hai

yahi to hai aapki lekhni ka kamal

Kamlesh Solanki