"सब तो ठीक है...है..ना..?"

"सब तो ठीक है...है..ना..?"
रेडियो पर गाना चल रहा था 
''कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ,
बीते हुए दिन मेरे प्यारे पल छिन" ।
 पापा सोफे पर बैठे  बाहर निहार रहे थे , मानो उन्हें किसी का इंतजार हो ।
 घर में खामोशी थी सब जानते हुए भी सब चुप थे ।
 आज बहुत दिनों बाद पापा ने मक्के की रोटी और टमाटर की चटनी बनाई थी और जब-जब  वह यह दो चीज बनाते   
तब-तब उदास हो जाया करते थे ,और हो भी क्यों ना ,
ये रोटी और चटनी उन्हें वह सब याद दिला देती हैं ,
जो वह याद नहीं करना चाहते।
 पापा को उदास देख कर मेरा दिल बैठा जा रहा था ।
मैं जानती थी ,यादों की जुगाली करता उनका मन कुछ ही देर में रेत की तरह भसक जाएगा, और आंसू बाहर नहीँ अंदर ही रिस रहे होंगें ।
 मैंने पापा का मन और ध्यान भटकाने की  गरज से पूछा" "पापा कुछ लाऊं क्या, चाय पिएंगें ?
पर पापा तो मानो जैसे किसी और दुनिया  में थे ।
उन्होंने मेरी तरफ देखा और कुछ नहीं कहा हौले से उठे पैरों में चप्पल डाली और पीछे बाड़ी की तरफ चल दिये ।
 मैं जानती थी अब वह घंटों वहां बैठे रहेंगे एक पतली सी टहनी उठाकर जमीन पर बे मकसद कुछ उकेरते रहेंगे और यह उदासी कुछ दिन तक उन्हें घेरी रहेगी ।वह दिन भी गुलजार हुआ करते थे जब छोटे और मंझले चाचा उनकी पत्नियां और बच्चों का घर पर आना जाना लगा रहता था। वे आते तो स्वार्थवश ही थे, पर  अच्छा लगता था उनका आना ।
 पापा के हाथ की बनी मक्के की रोटी और टमाटर की चटनी का तो पूरा खानदान दीवाना था ।
 पापा हर इतवार उन सभी को घर पर आमंत्रित करते , घर के पीछे बाड़ी में बड़ी साफ  सफाई की  जाती ,
 बड़ी सी दरी बिछाई जाती मानों पंगत बैठ रही हो ।
हो-हल्ले और शोर-शराबे के बीच सभी पापा की वाहवाही करते रहते और पापा खुशी से फूले नहीं समाते ।
 उनकी आंखों में खुशी बिजली के लट्टू सी झिलमिला जाती और हाथ और तेजी से रोटियां सेंकने में लग जाते ।
पापा अपने हाथों से ही मोटी मोटी मक्के की रोटियां बना कर चूल्हे पर सेंका करते ,बाल्टी भर कर टमाटर की कच्ची चटनी बनती,खुद आगे-आगे हो कर परोसते, मनुहार कर कर के खिलाते ,और ऐसा करते खुद खुशी से दोहरे हो जाते ।
जब परिवार के सभी लोग चले जाते तो घर में हम बच्चे और मम्मी रह जाते तब मम्मी गुस्से और खीज़ से बड़ बडाते हुए खुद भी काम पर लग जाती और हमें भी साफ सफाई करने का आदेश देती, और उलाहना देते हुए कहती
''आये खाये चल दिए यह नहीं कि काम में थोड़ा हाथ ही बंटा देते हैं यहां तो ,लंगर खुला है ना " ।
पर पापा इस बात की तरफ ज्यादा ध्यान दिए बिना,मम्मी की और क्षणिक परन्तु तीखी नज़र डालते और फिर अपने भावों के गुनथारे में मग्न हो जाते ।
पापा के लिए दादा दादी भाई-बहन सभी बेहद मायने रखते थे 
उनके लिए कुछ भी करना उन्हें बहुत सुख देता था । 
वो हर सुख को किसी बनिये की तरह मन की तिज़ोरी में संभाल कर रखते और कुंजी अपने हाथों से खोने न देते ।
उनके पीठ पीछे कितना भी गुस्सा दिखाए परन्तु उनके आते ही, उनका गुस्सा काफूर हो जाता, और मम्मी को आवाज़ लगाते, "अरे सुनती हो,छोटे और मंझले आये है,कुछ खाने को ले आओ", और अगर मम्मी को ज़रा भी देरी होती तो स्वयं ही उठ कर खाने का इंतज़ाम करने लगते ।
पापा ने कभी उन्हें भाई समझा ही नहीं, वे तो सदा से उनकी सन्तानो की तरह थे, जब भी चाचा लोगो का परिवार घर आता,हमें स्वयम के  द्वयं दर्ज़े का नागरिक होने का अहसास होता । उनकी इतनी अहमियत देख कर मन जलन से भर जाता था ।
खैर, समय अपनी गति से भागता जा रहा था ।
घर आना जाना,साथ खाना, त्योहार मनाना कम होते होते लगभग बन्द ही हो चुका था ।
और पापा के मन की तिज़ोरी में बड़े हिफाज़त से रखे सुख पर सेंध लग चुकी थी,धीरे धीरे सुख की दौलत रिस रही थी ।
स्वार्थ का कद बढ़ता जा रहा था, जिस आँगन में वे खेल कर बड़े हुए अब वहीं पर दीवारें खड़ी हो रही थी,वो दालान जहाँ  कभी सब मिल कर बैठ घण्टों धूप सेंकते थे अब सिमट चुका था ।  ज़मीन जायजाद के मसले कोर्ट-कचहरी तक पहुँच चुके थे । बड़ा अब बड़ा नहीं रहा, और छोटे ऐसे हो गए मानों कभी छोटे थे ही नहीं, ।
सारा प्रेम और सारी मर्यादा पानी हो गई ।
पापा कातर भाव से सब होता देखते रहे और जाने कब मन के रोगी बन बैठे ।
उनका मन मानने को तैयार ही नहीं होता कि, समय और इंसान दोनों बदल चुके है, सभी एक दूसरे के दुश्मन बन बैठे थे
परिवार दलों में बंट चुका था ,सभी अपने अपने खेमे संभाले हुए थे ।
पापा निर्दलीय थे सो,बाहर धकेल दिए गए , वे अब उनके किसी काम के नही रहे थे।
 पिछले साल  चाचा लोग घर आये, जैसे ही वे पापा के पैर पूजने को झुके ,पापा की आंखे बरस पड़ी, थोड़ी देर बाद खुद को सयंत कर रुंधते गले को साफ करते हुए वे बोले, " बहुत समय बाद आये हो, खाना खा कर जाना,अभी तैयार करता हूँ तुम्हारी मन पसन्द मक्के की रोटी और टमाटर की चटनी"।
किन्तु उनके ऐसा कहने पर, छोटे चाचा ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हें बैठाते हुए, कुछ कागज़ निकाल कर टेबल पर रख दिये",और रूखे स्वर में कहा, "न अभी समय है,न भूख ,आप पहले ये ज़मीन के पेपर देख लो",।
पापा सफेद चेहरा लिए बैठ गए,तमाम दुनियादारी की बातें और रिवायतें पूरी होने पर चाचा लोग चल दिये।
पर पापा हम सब से नज़रे चुराते रहे,वे जानते थे कि उन्होंने हमेशा अपने भाइयों को अपनी पत्नी और बच्चों से ज्यादा महत्व दिया था ,पर अब वे स्वयं उनके के लिए महत्वहीन हो गए थे ।
समय अपने कदम बढ़ाता आगे चलता रहा,कितना कुछ पीछे छूटता गया ,और पापा किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह सब कुछ संभालने की नाकाफ़ी सी कोशिश करते रहे ।
चाचा के लड़के की शादी थी,पर हम आमन्त्रित नहीं थे, छोटे चाचा के घर के उदघाटन में गए पड़ोसी ने बताया कि,बहुत शानदार घर बनाया है ।
अपनों के बीच अजनबी बने पापा हम से चोरी छिपे पड़ोसियों से घर की खबर लेते,और हमारे सामने ऐसा जताते की उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं ।
और आज भी वही हुआ,छोटे चाचा का लड़का विदेश चला गया ये खबर कहीं से मिली तो पापा ऐसे खुश हुए मानों उनका ही बेटा विदेश चला गया हो,और फिर आंखों के कोर पर छिप के बैठे आंसुओं ने सारी पोल खोल दी, अपनी खुशी ज़ाहिर करने या बीते सुख को फिर से भोगने की गरज़ से पापा ने आज फिर मक्के की रोटी और चटनी बनाई और चूल्हे की गीली लकड़ी से उठता हुए धुएं की आड़ ले जाने कितनी ही बार अपनी नम आंखों को पोछा ।
सब खाना खा कर सुस्ता रहे थे ,और पापा बाड़ी में थे ।
शायद सभी को लगा कि बहुत दिनों बाद आज पापा खुश है पर मुझे उनके मन की पीड़ा का आभास था ।
मैं पापा को उदास नहीं देख सकती थी, चूल्हे की ठंडी राख पर एक पतली से टहनी से कुछ उकेरते पापा की आंखे भीगी हुई थी,मैंने पापा को पीछे से अपने अंक में समेट लिया , और पूछा ," पापा आप ठीक हो न ? रो-वो तो नहीं रहे ",हड़बड़ा कर पापा बोले ," नहीं बेटा मैं क्यों रोने लगा भला ,  सब ठीक बेटा है,सब तो ठीक है,और फिर मेरे कांधे को थपथपा कर पापा बाड़ी से निकल गए ।
सच ही तो कह रहे थे पापा, सब ठीक है,सब तो ठीक है ।
दुनिया दिखने में एकदम ठीक है, विकास हो रहा है, 
दालान और आँगनों में अब गेट बन चुके है ।
अपने  हिस्से का सूरज लोगों ने अपनी छतों पर कैद कर लिया है,  सड़के चौड़ी हो रही है,खेत कालोनियों में विलीन हो रहे है, गांव शहर को छू रहे है , गौरैया जाने कहाँ गायब हो गईं है ,कौवा अब किसी मेहमान के आने की खबर नहीं देता, 
निमन्त्रण व्हाट्सअप पर मिल रहे है,पीले चावल कबके खत्म हो चुके हैं , 
अब बाड़ी में चूल्हे नहीं जलते,रोटी की सौंधी खुश्बू हवा में नही फैलती ।
पर सब ठीक है,सब तो ठीक है ,है न ?

मीता. एस. ठाकुर

Comments

Unknown said…
प्रिय मीता आपकी यह छोटी सी कथा दिल को छूने वाले हैं शब्दों की माला इतनी सुंदर और प्यारी है ऐसा लगता लगता ही नहीं कि एक कान्वेंट स्टूडेंट ने लिखा है। आप की प्रतिभा को नमन बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है आपकी । इसी के साथ आपको बहुत सारी शुभकामनाएं।