छूटता पीहर

छूटता पीहर

2 दिन से मन अशांत था , मम्मी की आवाज़ फोन पर कितनी कमज़ोर महसूस हो रही थी, "पापा की तबियत ठीक नहीं है बेटा, आ सकती है क्या मिलने,पापा को अच्छा लगेगा, कुछ खा पी नही रहे है,बहुत कमजोर हो गए है,इस बार पूरा मेडिकल चेकअप भी करवाना है, तुम आ जाती तो थोड़ी हिम्मत बंधती " ।
मम्मी मानो खुद को रोकते हुए अपना वाक्य पूरा कर रही थी, मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियों को  खुद के कांधों के ऊपर महसूस करने से उनके लहज़े में हिचकिचाहट आ गई थी ।
मेरा मन तड़प उठा , लगा की काश कुछ जादू हो जाये ,एक डग भरूँ और पापा के पास पहुंच जाऊं ।
समय देख कर पति से कहा कि, घर जाना है,पापा की तबियत खराब है,दूरी बहुत है और पहुँचना जल्दी है, क्या आप ले चलेंगे मुझे.."?!
मेरे मन की तड़प से विधाता का मन शायद पसीज़ गया था ,जिसकी नमी मैंने पतिदेव के लहज़े में महसूस की ।
वे बोले हाँ- हाँ चलो चलते है ।
जितनी जल्दी मैं तैयारी कर सकती थी मैनें की और कारवां निकल पड़ा पीहर की तरफ।
200 किलोमीटर लंबा रास्ता , जाने कितने मोड़ आये, पर मेरा मन तो जैसे मायके की चौखट से लिपटा हुआ था ,बारिश में भीग रहे जंगल- पहाड़, पेड़-पौधे बेहद खूबसूरत लग रहे थे,पर उन्हें देखने की ललक मुझे नही थी, मेरी आंखों मैं तो पीहर के यादों की बदली समाई हुई थी,मन बस माँ-पापा को देखने को तरस रहा था । लगा कि जल्दी नहीं पहुँची तो ,ये सावन आंखों से ही बरस पड़ेगा ।
देर रात घर पहुँचे तो अधीर मन को मैं रोक नही पाई बिजली की गति से कार से उतर घर का गेट खोल मैं घर के भीतर दौड़ पड़ी , माँ आँगन में खड़ी थी,माँ को देख कर मन कसक गया, मेरी तंदरुस्त मां कैसी सुकड़ गई थी, 
स्लेटी कमज़ोर  काया, आंखों के नीचे गड्ढे पूरी तरह से पक चूके बाल,सचमुच माँ बहुत परेशान थी ।
पर कमज़ोर माँ के अंक में समा कर लगा कि ये बाहें तो पीतल की है ।
जैसे चिड़िया अपने पँखो तले अपने बच्चों को छुपा लेती है,माँ भी अपने बच्चों को ऐसी ही सुरक्षा देती है ,चाहे उसके पर घायल हो या पीठ तीर से बिधी हो पर उसका सीना सदा बच्चों के लिए  ढ़ाल बना रहता है ।
माँ से मिल कर अभी मन नही भरा था की पापा से मिलने की ललक में मैं अंदर की तरफ चल दी,पापा बिस्तर पर लेटे हुए थे , मुझे देख कर उनकी आंखें छलक आई,भर्राए गले से कुछ बोले पर मैं समझ नहीँ पाई और दौड़ कर उनके गले लग गई । पापा फ़फक कर रो पड़े,मेरी रुलाई का बांध टूटने को था,पर जब पापा रो पड़े तो मैं जाने कैसे मज़बूत बन गई । 
बेहद कमज़ोर हो चूके थे , काया पर कपड़े झूल रहे थे ,मेरे शेर जैसे पापा कैसे निरह से लग रहे थे।
मैं पिछले 3 साल से मां पापा से नहीं मिली थी,1 साल व्यस्तता में कट गया,2 साल करीब "कोरोना" ले डूबा ।
इन 3 सालों में मेरे मन ने हज़ारो बार पीहर का दरवाज़ा ठकठकाया ।

विधाता से एक पल में हज़ार बार उनकी सलामती की दुआएं मांग चूकि थी ।
मिलना मिलाना, शिकवे-शिकायत ,खाना-पीना , सब कुछ होने के बाद निढ़ाल हो कर मैं बिस्तर पर गिर पड़ी ।
सोने से पहले पति ने हिदायत दी कि, "मैं दो दिन से ज्यादा नहीं रुक सकता " ।
उनका लहज़ा और वाक्य रूखा था, और मेरे कसकते मन पर एक प्रहार ।
मुझे बरबस याद आया कि अभी कुछ ही महीने पहले हम अपना शहर छोड़ कर जबलपुर आ कर बसे थे,क्योंकि पति का कहना था कि,"मेरे माता-पिता बूढ़े हो गए है,अब वे चाहते है कि,मैं भी उनके साथ रहूँ "।
उनके इस फैसले को मैंनें सहर्ष स्वीकार कर लिया, किन्तु पतिदेव को मेरे मायके में 2-दिन रुकना कठिन लग रहा था।
ख़ैर, दूसरा  दिन तो यूँही चुटकियों में बीत गया ।
हर बीतते पल को अपने आँचल में समेटती मैं, दिन को डूबने से नहीं रोक पाई ।
माँ इस उम्र में भी काम-काज में मुझसे बहुत ज्यादा तेज़ थी,मेरी स्थिति ये थी कि,जो काम में करती उसे बीच मे छोड़ कहीं पापा से बात करने लगती तो कभी माँ से बतियाने लगती, कभी पापा की दादी बन जाती तो कभी मम्मी की सहेली  तो कभी भाई की माँ ,पर माँ बिना किसी शिकायत के मेरे हर अधूरे काम को पूरा कर देती,मेरे बावरेपन को वो समझती थी।
मैं पूरी कवायद से पापा की हंसी वापस लाने में जुटी हुई थी । पापा की हंसी तो जैसे कहीं काफ़ूर हो गई थी, और माँ की हंसी, होंठो के कोरो पर सिमट गई थी, क्योंकि उनकी संजीवनी तो पापा की हंसी और पापा के ठहाके थे।
ख़ैर,पापा ने ठहाके तो नही लगाए पर मुस्कुराये ज़रूर जिससे माँ के मन को धीरज मिला और मुझे शांति ।
काश की मेरे पास कोई जादू की छड़ी होती, वो जो माँ- पापा चाहते , उनके सामने हाज़िर कर देती ।
पर उनके मन के लिए तो मैं बस प्रार्थना कर सकती थी,और वही कर रही थी ,ईश्वर को भी ओवरटाइम पर लगा रखा था मैंने ।
तीसरे दिन पापा का पूरा चेकउप करवाया,पतिदेव ने इसमें साथ दिया, सारा दिन हॉस्पिटल में कट गया ।
कुछ एक रिपोर्ट को छोड़ का सारी रिपोर्ट नार्मल थी, चिंता की बात ये थी कि,पापा बेहद कमजोर हो गए थे,खाना-पीना न के  बराबर हो गया था,माँ दिन भर मनुहार करती, कि, ये खा लो,वो खा लो,पर पापा ,भूख नही है,या फिर, खिलाई नहीँ जाता कह कर ,परसी थाली आगे सरका देते , और माँ का हीमोग्लोबिन कम हो जाता ।
जब मैंने पापा को समझाया तो अबोध बालक समान कहते है कि, मुझे समोसा खाना है, तेरी मम्मी सबकुछ उबला खिलाती है,कुछ भी चटपटा नहीं लगता,ऐसा मरीज़ों वाला खाना, मुझे नहीं खाना ।
पापा के ऐसा कहने और उनके चेहरे के भाव देख कर मैं और भाई बेसाख़्ता हंस पड़े, और जाने कितनी देर तक हम हंसते रहे, हमारी खिलखिलाहट से उदासी छू-मंतर हो गई ,पापा और मम्मी मुस्कुरा दिए ।
2 दिन बीत गए थे,पति ने याद दिलाया कि कल निकलना है,कल की रवानगी की तैयारी रखो, किन्तु बहुत मान-मनुहार करने के बाद वे एक दिन और रुकने को राज़ी
हो गए ,मुझे तो ऐसा लग मानों ऑक्सीजन की कमी से मरते व्यक्ति को पूरा ऑक्सीजन सिलेंडर ही मिल गया हो ।
उस पूरे दिन मैं, घर के हर कोने को नापती रही,माँ पापा के साथ जितना समय बिता सकती थी,बिताया ।
पुरानी फोटोज़ देखी,बचपन के खिलोनो में अपना बचपन खोजती रही, आँगन में जाती तो याद आता, इसी जगह पर  पापा की पीठ पर बैठे कितनी सैर की है, मां की डांट से बचने के लिए कैसे अमरूद के पेड़ पर  चढ़ कर  छत पर छिप जाते थे ।
पीछे बाड़ी में गई तो याद आया कि कैसे पापा, मिट्टी के चूल्हे में मक्के की रोटी और टमाटर की चटनी बना कर हमें और हमारे दोस्तों को खिलाते।
माँ ने कितनी ही बार क्यारियां बनवा कर सब्जियों की बुआई करवाई ।  रसोई में गई ,तो जाने कितने लम्हें ज़िंदा हो गए ,कितनी खुशबुएं ,कितने स्वाद मेरी जीभ और नाक से हो कर गुज़र गई, माँ का हमें केक बनाना सीखना, मेरी बनाई  बेकार गुझिया को दुनिया की सबसे सर्वश्रेष्ठ गुझिया  बताना ,सलाद को करीने से सजाना,ये सब चलचित्र की तरह मेरी आँखों के सामने  चल गया  और एक ही पल में मन टनों भारी हो गया ।

अपना समान पैक करते हुए मन विद्रोह कर उठा, मैं नहीं जाना चाहती थी, अभी मुझे और ठहरना था, माँ-पापा की सेवा करनी थी, उनके खिले चेहरे देखना चाहती थी।
पर मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियां मुझे इस बात की इजाज़त नही दे रही थी ।
आहत मन से अगली सुबह घर से निकलना हुआ,लाख मना करने पर भी माँ टिफिन तैयार करने लग गई, माँ-पापा दोनों के मन भीगे हुए थे और आँखे अभी तक तो उनका कहा मान रही थी, पर जानती थी कि
आँसू और रुलाई रोकने के प्रयास में उनके चेहरे बिगड़ जा रहे थे । अंततः निकलते वक्त वे स्नेह आशीष लुटाते, आशीर्वादों की बरसा करते नहीं थक रहे थे ।
मेरे 2-3 दिन का रहवास उनके लिए ज़िंदगी जीने की नई उमंग ले आया था, झुर्रियों में चमक आ गई थी, उनके ममता और स्नेह भरे सीने से लग कर तो हिमखंड भी पिघल जाता फिर मेरा मन तो वैसे ही आद्रता की दशा में था ।उनसे गले मिलते ही मैं बाढ़ की नदी की भरभरा गई और सब्र का बांध टूट गया।लगातार बहने के बाद आंसुओ की रफ्तार थमी तो,जल्दी मिलने का वादा किये मैं झटपट कार मैं बैठ गई,अब मैं शीघ्र यहाँ से निकलना चाहती थी,माँ पापा की ढेरों हिदायत और आशीषों को संभाले मैं निकल पड़ी, जब तक गाड़ी आंखों से ओझल नहीं हुई वे, हाथ हिलाते रहे ।
वापसी में भी कुदरती नज़ारे अपनी सुंदरता की चरम सीमा पर थे,पहाड़ो पर जैसे हरयाली की चादर बिछी हुई थी,हर पत्ता पानी में नहाया हुआ था,बादल पहाड़ी की चोटी पर डेरा जमाये हुए थे,हर नदी नाले अपने उफान पर थे,रिमझिम बारिश मौसम को खुशनुमा बना रही थी, पतिदेव ने रोमेंटिक गाने चला दिए,और बार बार उलहाना देते रहे कि, "मौसम का मज़ा लो,क्या रुदाली बनी बैठी हो,मिला तो लाया न तुम्हें, तुम्हारे माँ-पापा से "।
पति की शिकायत दूर करने की गरज से अपनी पूरी शक्ति बटोर कर मैं मुस्कुराहट को अपने होंटो के कोरो तक लाई और कार में बज रहे गाने को गुनगुनाते हुए जताने के प्रयास किया कि,मैं भी नज़ारों का मज़ा ले रही हूं ।
पर मेरे मन में तो कुछ और ही स्वर-लहरी गूंज रही थी ,जो मेरी पीड़ा के अनुसार ही थी, "माई री,मैं कासे कहूँ ,पीर अपने जिया की,माई री"।
मेरा मन तो पीहर की चौखट से किसी अबोध बालक के समान लिपटा हुआ था,जो बिलख रहा था,कि मुझे यहाँ से मत ले जाओ, मेरी पीड़ा का अंतर्नाद सुन कर आंखे विद्रोह कर रही थी, बाहर पानी बरस रहा था,और भीतर मेरा मन और मेरी आँखें ।
जब भी आँखे भर आती,मैं अपना चेहरा कार की खिड़की की तरफ घुमा लेती । मेरी पीड़ा भी  मेरे पीहर की धरोहर थी ,जो मैं किसी से नहीं बांट पाती ।
बेटियां पराई होती है इसीलिए विधाता ने ये पीर उनके मन में गूंथ दी है । मन मे हज़ारों प्रार्थनाएं लिए और इस उम्मीद से की जल्दी ही लौटूंगी, मैं पीहर की चौखट से निकल उस मंज़िल की और बढ़ गई जिस और कभी माँ-पापा ने मुझे बड़े अरमानों से विदा किया था।

Meeta S Thakur








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