सूख चुके पनघट

सूख चुके पनघट 


picture courtesy : Masashi Mitsui

पथराई आंखों से बूंदी कभी आसमान को देखती तो कभी पैरों के नाखून से आंगन का कच्चा फर्श कुरेदती ।
आंगन के किनारे से लगी सूखी कच्ची नाली
के आसपास कुछ चिड़िया फुदक रही थी इस आस में कि पानी की कुछ बूंदो से उनका गला तर हो जाए ।
यह प्यास ना मार डालेगी सबको ,बूंदी ने मन में सोचा ।
सब कुछ बिखरा दिख रहा था, सूखे पत्ते रेगिस्तान की रेत की तरह हर तरफ बिखरे हुए है, उन पर पावँ धरो तो कितनी आवाज करते हैं, एहसास कराते हैं कि उनकी नमी भी खत्म हो गई है ।
अम्मा को गुज़रे 5 साल हो गए जब तक अम्मा थी तो सर पर पानी का बर्तन धरे जाने कितनी दूर तक बूंदी बड़े आराम से चल देती थी , दोनों सास बहू कम सहेलियां ज्यादा थी ।
पनघट पर पहुँच कर तो जैसे बूंदी की सास नवयौवना बन जाती और बूंदी एक चपल बालिका ।
 वहां केवल पानी ही नहीं था, वो पनघट तो उनके लिए दुनिया मे खुलने वाली एक खिड़की की तरह था ।
 दुनिया भर की बातें सखी  सहेलियों का मिलना दुख सुख की बातें होती ,पनघट तो जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स था उसके लिए ।
अम्मा गुजरी उसके बाद भी कुछ समय वह जाती रही फिर जाने क्या हुआ क्यों बादल रूठ गए क्यों नदी का मन सूख गया पनघट अब रेगिस्तान में बदल गया था सूख चुका था , जैसे खुद पानी की भीख मांग रहा हो ।
 पनघट में पानी ना हो तो वह पनघट कैसा 
पानी चला गया, ये किस का दोष है उसे समझ में नहीं आता ।
बूंदी  केवल 5 जमाते ही तो पढ़ी हुई थी ,इतनी बड़ी बातें उसकी समझ में कैसे आती ।
 गए साल सुना था कि बांध का रुख मोड़ रहे हैं ताकि पानी इस गांव और कई गांव में आ सके पर फिर जाने क्या हुआ ,पानी नहीं आया, उसने अपने पति झिनकू से पूछा तो, वह झल्लाया सा बोला, "अपने काम से काम रख ज्यादा दरोंगनी न बन" ।
वह तो बांध का नाम सुनते ही से चपल बालिका की तरह फुदक उठती, अब झिनकू क्या समझे उसके मन की बात , निरा मूर्ख ,उसे तो बस कच्ची दारू की आधी बोतल थमा दो बस । 

बूंदी आए दिन बांध की चर्चा गांव में सुनती ,
बांध की चर्चा मात्र से उसका मन तो हरा भरा हो जाता है ।
कल्पना में वह चुल्लू में पानी  भर भर  अपने मुँह पर मारती।
बड़ी आशा लगाए वह नारों को सुनती रैलियों को देखती   कि अब पानी हमारे इधर से भी गुजरेगा "हमारा बांध हमारा अधिकार"
" हमारा पानी हमारा अधिकार " जैसे नारों को मन ही मन दोहराती ।
कई बार तो उसका मन करता है कि वह भी नारों को ज़ोर से बोले ।
उसका मन कसकता वो मूक हो कर कहती कि मुझे कुछ नहीं पता मुझे तो बस पानी चाहिए पनघट पर पानी चाहिए  , सहेलियां चाहिए चाची चाहिए दादी चाहिए उन सब की मीठी बकवास चाहिए कपड़े धोते हुए बुराई करना है बाल सुखाते हुए पति और रिश्तेदारों की बातें करनी है ,मन का सुख दुख सांझा करना है ।
पानी क्या  सूखा सबके मन ही सूख गए ।
नदी और उसकी गोद जाने कब हरी होगी।
आये दिन झिनकू के ताने सुनती है, कि वह उसे औलाद नहीं दे पाई, इसीलिए वह जल्द ही दूसरा ब्याह कर लेगा,फिर पानी की भी किल्लत होती है ।
घर में दो औरत रहेंगी तो पानी भर कर लाने की समस्या का भी समाधान हो जाएगा ।
बूंदी दूसरी औरत की बात सुनती तो कलेजा मुँह को आता । पानी क्या सूखा, झिनकू के मन का प्यार भी सूख गया ।
अब कान्हा और गोपियों की पनघट की गाथाएँ केवल सुनने की बातें लगती । 
बिन पानी के पनघट मीलों लम्बी सूखी नाली की तरह लगता।
न कल कल की आवाज़,न कपड़े धोते हुए कलाइयों से उभरता चूड़ियों का शोर , न सर पर मटकी उठाये पगडंडियों पर चलते हुए गीतों की तान ,सब कुछ जैसे थम गया था ।
अब तो न अम्मा रही न झिनकू का मन रहा उसमें ,अब एक ही चीज पर उसकी नज़रें गड़ी थी ,और वह था पानी ।
बांध का पानी, जब बांध का पानी नदी में छोड़ेंगे तो,नदी की देह फिर से लहलहा जाएगी ।
फिर कल-कल का शोर होगा,गीतों की तान होगी,चूड़ियों का शोर होगा ।
बूंदी अपने ही मन में कई गुंथारे बुन रही थी, चिलचिलाती धूप में चिड़ियों को परेशान देख एक मिट्टी के तसले में पानी भर आँगन में रख आई,तो कुछ संतोष मिला मन को ।
सूरज डूबा तो दिया बाती कर बूंदी ने चूल्हा जलाया , कल सुना था कि जल्द ही गावँ में कोई महासभा होने वाली है , सब मिल कर सरकार से गुहार लगाएंगे की बांध के एक दरवाज़े का रुख गावँ की तरफ मोड़ दे, उसने मन ही मन तय किया कि वो भी जाएगी, और सुनेगी बाबू साहब और पढ़े लिखे लोगों को ।
आज खाने में मक्कई की रोटी और टमाटर लहसुन की चटनी थी झिनकू की पसंद का खाना ।
बूंदी बेसब्री से झिनकू का इंतज़ार करने लगी,करीब घण्टा भर बाद झिनकू नशे में लड़खड़ाता हुआ आया, उसके हाथ मे कच्ची शराब की खाली हो चुकी बोतल थी ।
धोती में से कुछ नोट खूंसे हुए थे , झिनकू को संभालती हुई बूंदी खुद गिर पड़ी तो एक तुड़ा-मुड़ा पर्चा उसकी शर्ट की जेब से गिर पड़ा ।
उसे चारपाई पर लेटा कर ढ़िबरी की मद्धम रोशनी में "बूंदी" ने हिज्जे कर के पढ़ा ,तो उसे पता चला कि पर्चा "बांध" के विषय में है, आज कल में कोई महासभा होने वाली थी ,जिसमें शायद बांध के ऊपर चर्चा और भाषण होने वाले थे, बूंदी ने मन ही मन महासभा में जाने का निर्णय ले लिया। दूसरी सुबह सूरज सर चढ़े जब झिनकू का नशा उतरा तो वह कहवा ले कर उसके पास पहुँची और बड़ी आतुरता से पूछ बैठी " सुनो मुझे भी बांध की सभा में जाना है, तुम ले चलोगे न मुझे " । तू फिर बनन लगी दरोगनी, चुप कर बैठ जा,कहीं  न जा रही तू न मैं ।
उसकी बात सुन कर झिनकू भिन्नाते हुए बोला ।
सौ के कुछ नोट उसकी तरफ फेंक कर बोला , "ले रख ले इन्हें ,खराब वक्त पर काम आएंगे, बाबू साहब दिए है,और हिदायत दी है कि हम किसी सभा-महासभा में न जाये ,समझी "।
"क्यों, क्यों न जाये", बूंदी तमक कर बोली ,काहे लिए ये पैसे,ये पैसे क्या पनघट से बढ़ कर है,पानी से बढ़ कर है "
पानी नहीं आया तो गांव बदलना पड़ेगा,पानी ही जीवन है,हमारे अधिकार के लिए हम ही न बोले तो कौन बोलेगा ,खेती भी तो सूख रही है ,,कुछ तो समझो तुम, ।
उसका इतना कहना था कि ,झिनकू ने उसे धुन कर रख दिया ,लात घूसों की बरसात कर दी, जब गुस्सा थमा तो उसे रोता-बिसूरता छोड़ कर चारपाई पर ढ़ेर हो गया ।
"बड़ी आई दरोगनी, मुझे सिखाएगी ,ये अकेली जैसे बांध इधर मोड़ ही देगी ,हुंह ।
इधर बूंदी की आंखे बरसने लगी, उसने मन में सोचा, क्या फूटी किस्मत है ,विधाता न मेरी गोद हरी करता है न ही नदी को हरी-भरी करता है, न घर पर बच्चे की किलकारी थी,न पनघट पर कल कल करती नदियां का शोर ।
कैसा वीरान सा हो गया है जीवन , बूंदी ने आह भरी ।
बूंदी कभी सास की तो कभी पनघट की याद करती, खैर बूंदी अपने आप को समेटते हुए उठी और घर के कामों में व्यस्त हो गई ।
इससे पहले की सूरज सर पर चढ़े वो, पानी ले आए
सोच कर उसने मटके सिर पर धरे और निकल पड़ी।
गावँ के बूढ़े कुएं पर पहुँच कर उसने गहरी सांस ली ।
ये कुआँ तो मानो पानी रखने का ढोंग कर रहा है
सैकड़ो मीटर रस्सी डाल कर चुल्लू भर पानी निकलता है ।  चार-पांच प्रयासों के बाद मटको को भर बूंदी घर की तरफ चल दी ।
रास्ते की हर शय, पेड़, पर्वत,झिरमुट, सूख चुके नदी नाले, पनघट सब मानो पानी की गुहार लगा रहे थे ।
और बूंदी का मन तो जैसे पानी एक बूंद की आस में तप चूकी मरुभूमि की तरह हो गया था, उसकी आँखों से आंसू की दो मोटी मोटी बूंदे लुढ़क पड़ी,अब आंखों में ही पानी रह गया है शायद,बूंदी ने सोचा ।
घर पहुँची तो देखा कि झिनकू जा चुका था । वातावरण और बूंदी का मन सायं सायं कर रहा था ।
दूसरे दिन पूरे इलाके में उत्सव का माहौल था ,बांध को ले कर बड़ी महासभा होने वाली थी ।
मंत्री जी से सब अपने मन का दुःख कहेंगे ।
काश की वो भी जा पाती, तो बताती अपने दुखी मन की व्यथा ,पर झिनकू के डर से वो घर में ही दुबकी रही, पर मन तो हिलोरें मार ही रहा था ,सो वो भी निकल पड़ी टीले पर पहुँच कर देखा तो सामने मैदान में अनगिनत लोग थे ।सारे भाषण और चर्चाएं बांध के पानी पर ही थी ।
वो जाने कितनी देर यूँ ही खड़ी रही,उसकी दुनिया बहुत छोटी थी और उसका ज्ञान बहुत सीमित , न वो राजनीति समझती थी न परियोजनाओं का उसे कोई ज्ञान था , पर एक बात वो जानती थी कि,जीने के लिए जिन मूलभूत चीजों की आवश्यकता है उसमें से एक "पानी" है ।
सभा समाप्ति पर थी, लोग गला फाड़ कर नारे लगा रहे थे 
बूंदी ने भी अपनी आवाज़ बुलंद की और पुरज़ोर इंकलाबी आवाज़ में  चिल्लाई "हमारा बांध हमारा अधिकार" 
"हमारा पानी हमारा अधिकार" ।
तभी पीछे से झिनकू ने आ कर उसकी चुटिया पकड़ कर पीठ पर एक धौल जमाई । "तेरी ठठरी बंधे निर्लज औरत मना किया था तब भी आ गई,बड़ा शौक चढ़ा है  तुझे नेताइन बनने का" ।
और वो उसे लगभग घसीटता हुआ ले जाने लगा ,किन्तु बूंदी को कहाँ होश था , उसकी आँखों में आंसू थे और थे सैकड़ो सपने और  आशाएं , सपने कल कल करते पानी के,पनघट के , हरी-भरी नदी के ।
झिनकू उसे किसी बोरी की तरह खींच रहा था और वह दीवानों की तरह चिल्ला रही थी "हमारा बांध हमारा अधिकार" "हमारा पानी हमारा अधिकार" ।

मीता एस ठाकुर

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