एक्सपायर्ड रिश्ते

एक्सपायर्ड  रिश्ते

कुछ दिनों पहले एक वीडियो देखा, जिसमें एक छोटे से नाटक के जरिये बताया गया कि, एक बूढ़ा पिता किस तरह अपने बेटे को याद करता है, उसके पास की-पेड वाला एक पुराना मोबाइल है, जिसमें किसी प्रकार की कोई खराबी नही है, तकनीकी रूप वह मोबाइल एक दम ठीक है , किन्तु उसे लगता है कि,मोबाइल खराब हो चुका है दुकान पर मौजूद कारीगर उसे लाख समझाता है कि मोबाइल एक दम ठीक है,वह उसे कॉल लगा कर भी दिखता है किन्तु वह बूढ़ा पिता बार बार दुकानदार से यही मिन्नतें करता है कि, "ये मोबाइल खराब है, ये मोबाइल खराब है,ये काम नहीं करता , इसे ठीक कर दो, अगर ये ठीक होता तो क्या इस पर मेरे बेटे का कॉल नही आता ", ये मोबाइल  ख़राब है " । कहते हुए वो बूढ़ा पिता ज़ार ज़ार रोने लगता है ।
क्योंकि कहीं न कहीं वह जानता था की मोबाइल तो ठीक है पर,दिलों को जोड़ने वाले तार टूट चुके है , उसका रोना इस बात का संकेत था कि, महीनों से गूंगे पड़े मोबाइल की एक कॉल ,एक ट्रिन-ट्रिन को उसके कान तरस गए है, परंतु संतान पर दोष कैसे लगाता, उसकी खुद की परवरिश को दाग़दार कैसे करता ।
2 मिनिट के उस वीडियो को देख कर मेरा मन रो दिया,और आत्मा को जैसे किसी ने झिंझोड़ दिया ।
उस बूढ़े पिता की पीड़ा को देख मेरा मन जैसे भीतर से तिड़क गया ,आंखों का भर आना स्वाभाविक था ।
और उतना ही स्वाभाविक था इस हकीकत का चुभना की हम कितने व्यावसायिक होते जा रहे है,दिमाग बड़ा और दिल छोटा होता जा रहा है , मानवीय सम्बन्धों को भी हमनें एक्सपाइरी डेट के साथ टैग कर दिया है ।
उस बूढ़े पिता की तरह जाने कितने ही उदाहरण मेरे आस पास है, जिनके मनों में आशाओं के दीप धैर्य की अंतिम बून्द तक जलते है,और फिर इंतज़ार करते करते एक दिन फड़फड़ा कर बुझ जाते है ।
कितने दुख का विषय है कि जीवन की वो पहली पाठशाला अब हमारे किसी काम की नहीं रह जाती ।
मन में पीड़ा लिए मैं अपने काम में मशरूफ हो गई  ।
अगले सप्ताह स्कूल में ग्रैंड पैरेंट डे मनाया जाने वाला था,और उन्ही बच्चों को कार्यक्रम देखने या या उसमें भाग लेने की अनुमति थी जो अपने दादा दादी,नाना-नानी के साथ आते । सारे हफ्ते कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए टीचर व बच्चों ने जी तोड़ मेहनत की । कार्यक्रम का दिन आया ।
कार्यक्रम की रौनक देखते ही बन रही थी,
सारे कार्यक्रम इस थीम पर ही आधारित थे कि "दादा दादी हमारे लिए कितने मूल्यवान है, वे तो आँगन के किसी विशाल वट-वृक्ष की तरह है,जो हमें न केवल छाया, सुरक्षा और फल देते है,बल्कि ज़रूरत पड़ने पर हमारी सुरक्षा के लिए अपने सुखों का त्याग भी करते है, ।
सुंदर गीत , मनमोहक प्रस्तुति और मर्मस्पर्शी नाटक कविताये  देख सुन कर सभी भावुक हो गए थे ।
मुस्कुराहटें झुर्रियों से फूट-फूट कर बाहर निकल रही थी,
बूढ़ी आंखों के कोर बारम्बार भीग जा रहे थे ।
कोई रोते हुए मुस्कुरा रहा था,तो कोई मुस्कुराते हुए रो रहा था । कुछ के सीने गर्व से फूले हुए थे , कुछ देह सिमटी हुई सी बैठी हुई थी, कुछ अपनी मूंछो पर यह सोच कर ताव दे रहे थे कि " वाह ,क्या संस्कार दिए है हमने अपने बच्चों को,तो कोई सौम्य सी मुस्कुराहट लिए अपने नो निहालो को निहार रहे थे ।
कार्यक्रम के अंत में सभी बच्चों ने संस्कारों का पालन करते हुए ग्रैंड पेरेंट्स के पाँव छुए , आशीर्वाद लिया, तो कितनी ही शक्लों की झुर्रियों में आंसू के बूंदे अटक-अटक गई,थरथराते हुए हाँथ आर्शीवाद देने के  लिए झूम कर उठे
मैं खुश थी कि कार्यक्रम सफल रहा , चलने की तैयारी में ही थी कि  मेरे एक छात्र के अभिवावक ने मुझसे आग्रह किया कि,क्या मैं उन की माता जी को उनके घर तक छोड़ दूंगी,क्योंकि वे विपरीत दिशा में जा रहे थे।
उनके ऐसा कहने पर मैनें स्वतः ही हाँ कर दी , मेरा आश्वाशन पाते ही वे तुरन्त निकल गए , कुछ ही देर में, मैं भी निकली और माता जी को कहा कि वे मेरे साथ चले
बूढ़ी कमज़ोर काया, स्लेटी हो चुका त्वचा का रंग ,खिचड़ी बाल ,चेहरे पर अनिश्चितता के भाव ,लिए वे
बड़े संकोच के साथ कार में बैठी, और मैं बरबस ही उन से पूछ बैठी कि, आप अपने बेटे के साथ नहीं गई,क्या वे कहीं और जा रहे थे ?
इस पर वो कुछ बोली नहीं, बस मेरी तरफ देखते हुए होले से मुस्कुरा दी ।
उनका घर आने में देरी थी, मैंने थरमस से चाय निकाल कर उन्हें दी,उन्होंने संकोच के साथ चाय का कप थामा, और जाने कब कैसे बातों का सिलसिला चल पड़ा ।
उन्होंने बताया कि पति फ़ौज़ में थे, बच्चा छोटा  ही था कि वे दुनिया से कूच कर गए ,वह थोड़ी बहुत पढ़ी लिखी थी पूंजी के नाम पर कुछ ज़मीनें और पशु धन था ।
जी तोड़ मेहनत कर उन्होंने अपने बेटे का जीवन संवार दिया ,किन्तु खुद का जीवन स्वाह कर दिया ।
बेटा आज इंजीनियर है, पुश्तैनी घर छोड़ कर कंपनी के दिये बंगले में रहता है,।
क्योंकि उसे वहीं अच्छा लगता है,अब मिलने मिलाने का सिलसिला भी न के बराबर रह गया था ।
मोबाइल पर ही बात हो जाती है, माँ जी का तो बहुत मन था कि बेटे के ही साथ जा कर रहे ,पोते पोतियों के बीच रहे,पर बेटे ने दो टूक जवाब दिया कि, "माँ अगर तुम भी हमारे साथ रहने लगोगी,तो इस घर की देखभाल कौन करेगा ,तुम यही रहो,जब चाहो मिलने आ जाना अब तो तुम्हारे इस शहर में दो-दो घर है "।
स्वाभिमानी माँ क्या कहती,चुप रही ।


आज माँ जी अकेली है, जब बहुत याद सताती हैं, तो स्वाभिमान को फटकार लगा ,फोन पर बात कर  ही लेती है
कमी तो आज भी उन्हें किसी बात की नहीं, पर अकेलापन उन्हें खाये जाता है , भौतिकता को उन्होंने पहले भी महत्व नहीं दिया था,जीवन के इस संध्याकाल में उन्हें ज़रूरत थी परिवार की,बच्चों की आवाजाही की, पोते-पोतियों के खिलखिलाहट की ।
उनका घर आ चुका था,उनके आग्रह पर मैं चाय के लिए रुक गई, बातों के सिलसिले आगे बढ़ते गए, उन्होंने बताया कि बेटे-बहू के साथ कभी कुछ झगड़ा या विवाद नहीं हुआ पर कुछ ऐसा भी नहीँ पनप पाया जो रिश्तों को जोड़ने में गोंद का काम करता है,वे उनके बीच रह कर भी छिटका हुआ महसूस करती हैं , बेटा इसी शहर में है,पर दिलों के बीच मिलों की दूरी है, रिश्तों के बीच परायापन बिखरा हुआ है।
बीमार होने पर बेटा डॉक्टर को फोन कर देता है, डॉक्टर घर आ कर देख जाते है,पर माँ जी अपने तपते माथे पर बेटे की हथेलियों की स्पर्श को तरसती रह जाती है ।


आँगन में लगा छायादार पेड़ और उस पर झूलता झूला ,माँ जी ने बहुत चाव से लगवाया था पोते के लिए , किन्तु बेटे ने "इट्स डेंजरस " कह कर उनके प्यार दुलार पर कैंची चला दी । खास त्यौहार पर बेटे के घर जाने की इच्छा जाहिर करने पर बेटा गाड़ी और ड्राइवर भेज देता है, बेटे के घर पहुँच कर वह एक उपेक्षित मेहमान  बन जाती है, कहीं न कही "अनवांटेड" का टैग लगा होता है उन पर,सब व्यस्त है, वो स्वयं को परग्रही सा महसूस करती ।
परायेपन ने कभी अपनेपन की भावना को पनपने ही नही दिया,तो अधिकार की भावना कहाँ से आती,बेटे के घर को अपना घर कैसे समझ पाती,बहू को देखती तो लगता कोई ये कोई पराई स्त्री है,उसके साथ स्नेह के तार जोड़ने की हर कोशिश नाकाम रही। बुरा कोई नहीं था पर सब ठंडे थे , बेहद ठंडे,रिश्तों की गर्माहट को बेवकूफी समझ कर उन्होंने त्याग दिया था ।
इस परायेपन की हवा में उनका दम घुटने लगता वो वापस अपने घर जाने को तड़पने लगती, तब बेटा डांट भी लगाता कि, आने के लिए जितनी बेसब्र होती हो,जाने के लिए उससे भी ज्यादा,तो फिर आती ही क्यों हो?
बजाए माँ की दुविधा समझे वो फिर ड्राइवर को बुलाता और ड्राइवर उन्हें फिर उनके पुश्तैनी घर छोड़ आता ।
उनके इस घर में अकेलापन तो है पर कम से कम परायापन तो नहीं ।
आज के ग्रैंड पैरेंट डे के लिए बेटा एक हफ्ते पहले से बोल चुका था कि " माँ आप तैयार रहना , हम आपको लेने आएंगे , सोनू के स्कूल में दादा दादी को सम्मानित किया जा रहा है,आपका चलना ज़रूरी है ,अन्यथा उसे कार्यक्रम में शामिल होने की अनुमति नहीं मिलेगी "।
परिवार के साथ कुछ पल गुज़ारने की चाह और गरज़ से माँ जी न केवल तैयार हो गई,बल्कि बेसब्री से "ग्रैंड पैरेंट दे" का इंतज़ार भी करने लगी ।
जब सोनू ने मंच पर इतने लोगो के सामने उनके बारे में स्पीच दी,पैर छुए ,तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा ।
किन्तु यह खुशी ,ये अपनापन कार्यक्रम ख़त्म होते ही औपचारिकता और परायेपन में बदल गया ,जब लौटते समय बेटा उन्हें घर तक भी नहीं छोड़ पाया और पराये अनभिज्ञ लोगो के सहारे छोड़ गया ,जैसे कोई दूध में से
मक्खी को निकाल देता है ।
हम भावनाओं और बातों के बीच मे ही थे कि मेरा फोन घनघना उठा ," दूसरी और माँ जी के बेटे यानी सोनू के पिता थे , सोनू को बेस्ट परफॉर्मंस के लिए जो सर्टिफिकेट मिला था,वह खो गया था,उसकी ही तफ्तीश कर रहे थे।
मैंने उन्हें याद दिलाया कि वो सर्टिफिकेट उनकी माता जी के पास है,क्योंकि सर्टिफिकेट दादा दादी को दिए गए थे ।
दूसरे ही पल फोन कट गया और इससे पहले की मैं माँ जी को कुछ कह पाती, माँ जी का फोन बज उठा मैं जान गई कि ये उनके बेटे का ही फोन है,पर उन्होंने फोन नहीं उठाया, दूसरी बार जब फिर बेल बजी तो मैंने उन्हें फोन उठाने को कहा, मेरे ऐसा कहने पर वे उठी और बहुत आहिस्ता से फ़ोन को उठाया और  कुशन कवर के नीचे दबा दिया ,कुछ देर तक फ़ोन  बजता रहा  फिर खामोश हो गया।
माँ जी आहत थी और मैं अवाक , मेरी आँखों मे उभरे प्रश्न को देख कर उन्होंने धीमी परन्तु गहरी आवाज़ में कहा
"ये फोन ख़राब हो चुका है बेटा, यूँ ही बेवजह बजता रहता है" 
किन्तु ऐसा कहते हुए उनकी आंखों के कोर भीग गए ।
बहुत समय हो गया था,फिर मिलने का वादा करके मैंने भारी मन से उनसे विदा ली, रास्ते भर सोचती रही,कि
उस नाटक में बूढ़े पिता को शिकायत थी कि उसका फोन ख़राब है,क्योंकि फोन पर उनके बेटे का कोई कॉल नहीं आता।
और इधर माँ जी ने बेटे का कॉल आता देख कह दिया कि फोन ख़राब है,बेवजह बजता रहता है, दोनों बातें ,परिस्थितियां अलग है पर दोनों बूढ़े जीवन की पीड़ा का मर्म एक ही है, फर्क इतना है,कोई सच्चाई स्वीकार कर लेता है,तो कोई अपने मन को बहलाता है
पर दर्द तो फिर भी क़ायम है, ममता आहत है और मजबूर भी ।
क्या पता माँ जी ने इसीलिए भी फ़ोन न उठाया हो कि  स्वार्थ से ही सही,एक बार और बेटा घर तो आएगा ।

By

Mrs Hakuna Matata











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