उधार का अख़बार

उधार का अख़बार 


सुबह सुबह तेज़ आवाज़ सुन कर मेरी नींद खुली 
संडे के दिन भी लोगो को चैन नहीँ है ।
बिस्तर से बेमन उतरते हुए मैं बड़बड़ाई ।
उनींदी आंखों को पूरा खोलने की कोशिश के साथ मैनें देखा कि पतिदेव वॉचमैन पर बरस रहे थे ।
"आखिर ये न्यूज़पेपर चला कहाँ जाता है, ..? कभी कभी तो एडिशनल पेपर भी गायब रहते है, क्यों पेपर की तह बेतरतीब होती, है आज का और 2 दिन बासी लगता है ,अगर कल से न्यूज़पेपर ताज़ा और टाइम से नहीं मिला तो तुम्हारी खैर  नहीँ " ।
बेचारा वॉचमैन क्या कहता, जी-साहब कह कर चलता बना ।
वॉचमैन को डपट कर पतिदेव वापस पलटे तो चेहरे पर खीज़ के भाव थे ।
उनकी आदत है,सुबह उठ कर चाय की चुस्की के साथ अखबार की ख़बर के जायके लेने की ।
अखबार तो जैसे मठरी टोस्ट  या अदरक इलाइची हो गया, जो चाय के साथ और चाय में होना ज़रूरी होता है ।

भिन्नाये हुए पतिदेव अखबार उठा कर पढ़ने तो लगे पर जो आनंद ताज़े अखबार में आता है,उससे वंचित रह गए ।
सही तो है।
आज दुनिया भले ही डिजिटल हो गई है,
सारे अखबार ई-पेपर के रूप में मोबाइल की स्क्रीन पर एक क्लिक ,एक टच की दूरी पर है ,पर फिर भी जो मज़ा अख़बार के पन्नों में सिर घुसा कर खबरों में खो जाने का है,वो मज़ा और कहीं नहीं ।
ताज़ा अख़बार होता ही है  नए कपड़ें की तरह ,एक दम कड़क और चमकदार, 
ताज़े अख़बार के पन्नो की महक ही अलग होती है ।
खबरें तो वही रहेंगी,पर किसी और का पढ़ा अख़बार बासी लगने लगता है ।
कुल मिला कर मैं जनाब के दिल का हाल समझ गई थी ।
पर अब सवाल ये था कि इस ताज़े अख़बार की तह खोल कर,उसकी "तह" को बेतरतीब कर उसकी महक को उड़ा कर उसे बासा कौन कर देता है।
अगाथा क्रिस्टी के कुछ नॉवेल तो पढ़ ही रखे थे मैनें ,इसलिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी जासूसी करने में ,अलसुबह उठ कर एक मुस्तैद जासूस जी तरह मैं की-होल पर नज़रें गड़ा कर खड़ी रही ,कुछ ही देर में मैंने देखा कि बगल वाले " मिश्रा-जी"  बड़े हक से सामने टेबल पर रखे अख़बार को उठाते है और चल देते है ।
अगले लगभग 4-5 दिनों तक मेरी जासूसी यूँ ही चलती रही , हर दिन की-होल से मुझे "मिश्रा-जी" के ही दर्शन होते 
अब क्या करूँ .....मैं सोचने लगी ।
अब सुबह सुबह उठ कर अख़बार उठाने और अंदर लाने के इलावा कोई चारा नही था । पर किसे याद रहता है इतनी सुबह सबसे पहले अख़बार उठाना ।
पतिदेव भी अख़बार करीब 8 बजे ही पढ़ते है ।
ख़ैर , ये हल निकाला गया कि धर्मसंकट से बचना है तो अलसुबह ही उठो और इससे पहले की "मिश्रा जी" अखबार पर हाथ साफ करें ,उसे उठा कर भीतर ला लो। 

अब ये काम भी मेरे मत्थे ही पड़ा, क्योंकि स्कूल जाने  की तैयारी के लिए मुझे वैसे भी अलसुबह उठना होता था ।
बस फिर क्या था, "मिश्रा-जी" और मुझमें एक अनदेखी और अनकही सी स्पर्धा होने लगी ।
कभी  मैं अख़बार  पहले उठा लेती तो कभी "मिश्रा-जी"
अगर अख़बार पहले मेरे हाथ लगता तो मुझे जीत का अहसास होता और गर पहले उन्हें मिल जाता तो शायद उन्हें भी ऐसा ही लगता होगा ।
ख़ैर कई दिनों तक ऐसा ही चलता रहा, वो दिन लद गए जब आराम से बिस्तर छोड़ा जाता था, अब तो आंखे भी पूरी तरह नहीं खुल पाती और दौड़ लगाना पड़ता है ।
मेरी मुसीबत भांप कर पतिदेव बोले "सुनो ,मैं मिश्रा जी से बात कर लेता हूँ, और पेपर हॉकर का नम्बर भी दे देता हूँ, उनसे कहूंगा कि वे भी पेपर लेना आरम्भ कर दें " ।
मिश्रा-जी इतनी आसानी से मान जाएंगे इसकी उम्मीद कम ही थी मुझे, शाम को जब स्कूल से लौटी तो मेरा पहला सवाल था, "सुनो,तुमने मिश्रा-जी से बात की क्या ?" 
इस पर पतिदेव खिसिया कर बोले "हाँ यार,पर कोई फायदा नहीं " ।
क्यों..? मैनें दूसरा सवाल दागा ।

हम्म....  गहरी सांस लेते हुए  पतिदेव ने बताया कि मिश्रा जी कह रहे थे  
"सिंह साहब जब आपके यहाँ अख़बार आता है तो,मैं ले कर क्या करूँगा,2-4 ख़बर ही तो पढ़नी होती है,और जो मज़ा पड़ोसी का ताज़ा अख़बार पढ़ने में है ,वो भला खरीद कर पढ़ने में कहाँ" ।
पतिदेव की बात सुन कर मेरी समझ मे नहीं आया कि क्या करूँ, अपना माथा पीटू या हँसते हुए दोहरी हो जांऊ,
पतिदेव का लटका चेहरा देख कर मेरी हंसी छूट गई ।
मैं जाने कितनी देर पेट पकड़ कर हंसती रही, न केवल मैं, बल्कि,टिक्कू भी ,हम दोनों हंसते हंसते दोहरे हो गए ।
कुछ पलों बाद जब हंसी थमी तो मैं धम्म से सोफे पर बैठ गई और पतिदेव को छेड़ते हुए कहा कि,
" तो जनाब ऐसा है कि अब आप बासा अख़बार पढ़ने की आदत डाल लें,क्योंकि "मिश्रा-जी" ठहरे सीनियर सिटीजन आप उनसे उलझ नही  सकते और न ही सख़्त रवैया अपना सकते है "।
पतिदेव ने भी " हाँ " में सर हिला कर हथियार डाल दिए ।
उसी दिन शाम को "मिश्रा-जी" घर पधारे , वो कॉलेज में प्रोफ़ेसर रह चुके थे,इसीलिए मैं उन्हें "सर" कहा करती थी 
जाने क्यों उन्हें देख कर मुझे अपने पति का लटका चेहरा याद आ गया और मैनें शरारत से पतिदेव की तरफ देखा ।और "मिश्रा जी" का अभिवादन करते हुए बोली ,
"आइये सर,बैठिए ,अभी चाय लाती हूँ"।
वे बड़े आराम से बैठे ,पतिदेव की शक्ल देखते ही बन रही थी ,मानो वे मन के भाव दबा कर मुस्कुराने की कोशिश कर रहे हो ।
चाय की चुस्कीयों  और गरमा-गरम पकौड़ियों के साथ बातचीत का दौर शुरू हुआ, पतिदेव भी अब सामान्य हो गए थे,गोया अपने दिल को समझा लिया हो उन्होनें ।
इधर उधर की बात के पश्चात "मिश्रा-जी" बोले 
"सिंह-साहब, आखिर पड़ोसी होते,किसलिए है,सुख-दुःख बाँटने के लिए न ,आजकल तो देखिए पड़ोसी धर्म खत्म से हो गया हूं, सब कितने संवेदनहीन हो गए है, 
मुझे तो खुशी है कि मैं आपका पड़ोसी हूँ ,अब देखिए न मैं रोज़ आपका अख़बार पढ़ता हूँ, पर क्या आपने कभी मुझे रोका, टोका,नहीँ न, यही तो है पड़ोसी धर्म , जितनी लोगो की तनख्वाह है,उतनी तो मेरी  पेंशन आती है,मैं अख़बार क्या पूरा प्रिंटिंग प्रेस ख़रीद लूं ,पर मुझे तो इसी में मज़ा आता है " ।
उनकी बातें सुन कर और पतिदेव के चेहरे के भाव देख कर मेरे पेट मे बल पड़ने लगे, हंसी रोकते हुए मेरा चेहरा लाल हो गया,पर बात अभी खत्म नही हुई थी, "मिश्रा-जी" पतिदेव के कंधों पर हाथ रखते हुए बोले ,सिंह-साहब" मैं जाति से ब्राह्मण हूँ, जहाँ दो पैसा बचेगा,जरूर बचाऊंगा"।
और ऐसा कहते हुए उन्होंने एक पकोड़ा और मुँह के हवाले करते हुए अपनी बात आगे जारी रखी," सच में सिंह-साहब आप जैसा पड़ोसी किस्मत से मिलता है " ,सच कहूँ तो ये प्रेम है आपके और हमारे बीच वही तो हमारे सम्बन्धो को कायम रखता है ।
उधर पतिदेव जी हाँ, सही कहा ,ठीक कह रहे है ,जैसे रटे-रटाये जुमले बोलते रहे ,और मिश्रा-जी के साथ पड़ोसी धर्म निभाते रहे ,पर मन से ताज़ा अख़बार पढ़ने का मोह नही छोड़ पा रहे थे ,तारीफ के बोझ के नीचे दब रहे थे सो अलग ।
कुछ देर बाद जब  "मिश्रा-जी"  चले गए तब हम उनकी बातों को दोहराते हुए बेसाख़्ता हँसे और सचमुच हंस कर बहुत हल्का लगा, वैसे स्वार्थ से ही सही,पड़ोसी धर्म तो निभ रहा था,और निभता रहना भी चाहिए ।
हम समझ चुके थे कि,अख़बार को पाने की ये चूहा दौड़ चलती रहेगी और पड़ोसी धर्म भी अपनी जगह कायम रहेगा, कभी मिश्रा जी के हाथों अख़बार का उद्घाटन होगा,कभी मेरे हाँथो ।
ख़ैर ,रात को काफी देर तक काम मे उलझी रही,तो पतिदेव ने आवाज़ लगाई " अरे मैडम, सो जाइये ,कल अलसुबह उठ कर आपको अख़बार उठाना है,वरना नज़र हटी, दुर्घटना घटी" ,और ऐसा कहते हुए वे स्वयं ठहाका मार कर हंस पड़े और साथ ही मैं भी हंस पड़ी ।
कल का अख़बार तो पहले मैं ही उठाऊंगी ये सोच कर ,मुस्कुराते हुए मैं सोने चल दी ।


By 
Madam Hakuna.Matata 

Comments

Kamlesh Solanki said…
वॉचमैन को डपट कर पतिदेव वापस लौटे तो चेहरे पर खींज के भाव थे

अलसुबह उठना

अपना माथा पीटूं या हंसते हुए दोहरी हो जाऊं

पडोसी धर्म,

100 में 100 नंबर है यार तुम्हारी लेखन शैली को

👌👌👌👌👌👌

उपमा, यमक और अनुप्रास अलंकार का कितना शानदार और सटीक इस्तेमाल करती हो तुम 👌👍👌👍