बदला रूप



                  बदला रूप
‘ओझी अरे ओ ओझी’ कहाॅ मर गई करमजली,अरी कब से गला फाड़ रही हूॅ ,अरी जा डाक्टर बाबू के हियाॅ चली जा मेरी तबियत अच्छी ना लग रही हैं । अरे करमजली सुन रही है या नहीं ----।’
बच्चों की टोली के साथ मस्त हो कर खेल रही ओझी को कुछ सुनाई नहीं आ रहा था या फिर सुन कर भी अनसुना कर रही थी ।उसका बाल सुलभ मन तो खेल में रमा हुआ था । कई बार बुलाने पर भी जब ओझी ने नहीं सुना तो उसकी माॅ रमाबाई गुस्से से दनदनाती हुई कर्वाटर से बाहर निकली चेहरा गुस्से तमतमा रहा था और हाथ में छड़ी थी ,और उसकी जुब़ान उसके कदमों से ज्यादा तेज़ चल रही थी ।
ओझी खेल की धुन में अपनी माॅ को आता नहीं देख पाई , उधर रमाबाई ने लबें लबें डग भरते हुये रास्ता पार किया और लपक कर हवा लहराती हुई उसकी चोटी पकड़ ली और औझी के चेहरे पर दर्द की लकीरे उभरती चली गई । रमाबाई उसकी गोरी पिंडलीयों पर छड़ी के निशान बनाती हुई घर घसीट कर ले गई ।
रमाबाई का बड़बड़ाना जारी था ।
‘मरी को खेलने से फुरसत नहीं मिलती हियाॅ मेरी आखॅ लगी नहीं कि करमजली घर से बाहर ’।
हर दो चार वाक्य के बाद रमाबाई उसकी टागों पर एक छड़ी जमा देती ।
‘उई माॅ, उई माॅ ’ ।
चिल्लाती रोती ओेैझी घर चली गई । 
औझी के घर के पिछ़वाडे से अभी भी उसकी माॅ की आवाजे़ आ रही थी ।‘ "अरी मरी, बांस जैसी लबीं होती जा रही है पर बित्ता भर भी अक्ल नहीं हैं इस मन भर के भेजे में कब से चिल्ला रही हूॅ कि डाक्टर बाबू के हियाॅ चली जा पर मरी के कान पर जूॅ नहीं रेंगती है ।
उघर औझी की माॅ चिल्ला रही थी इधर हमारा पूरा खेल बिगड़ चुका था । 
औझी हमारे टीम की सबसे अच्छी खिलाड़ी थी तेज घावक और बेहतरीन निशानेबाज थी एक आखॅ बंद कर के जब वह निशाना लगाती तो लकड़ी के टुकड़े से बना पिट्ठू एक बार में ही  भरभरा कर गिर पड़ता और बाॅल तो उसके शरीर को छू भी नहीं पाती हर बार अपने शरीर को उलटा सीधा कर वह  बच निकलती ।
औझी हमारे टीम की जा़न थी हमारी टीम हमेशा उसकी बदौलत ही जीता करती थी । 
उसके जाने के बाद फिर खेल में मजा़ नहीं रहा था इसी लिये सभी अपने अपने घर चले गये । 
औझी के घर से रह रह कर उसकी मां के चिल्लाने की आवाजे़ आ रही थी ।

शहर के दूर प्रदूषण से दूर हॉस्पिटल बना हुआ था हॉस्पिटल के सारे कर्मचारीयो के रहने के लिये हास्पीटल कैम्पस में ही क़वार्टर बने हुये थे ।
हमारी कालोनी तीन भागो में बंटी हुई थी 
ए-टाइप क्वार्टर, बी-टाइप क्वार्टर और सी-टाइप क्वार्टर। सी-टाइप क्र्वाटर हमारे कालोनी के ठीक सामने थे जहाॅ दो कमरो के छोटे से क्वार्टर में वह
अपनी माॅ ,भाई भाभी,ताउ और दो भतीजो के साथ रहती थी ।औझी की माॅ 
में  आया का काम करती थी हाॅलाकि उसकी तन्ख्वाह इतनी थी कि उसका गुजारा आराम से चल सकता था घर में पशु धन भी था , परन्तु अतिरिक्त आय के लिये वह डॅाक्टरो के यहाॅ काम किया करती थी साथ ही औझी को भी अपने साथ लिये जाती ।
 रमाबाई को बड़े लोगो की संगत पसंद थी डाक्टरो के यहाॅ से मिली खैरात भी वह बड़ी शान से दिखाती । उसे औझी का हमारे साथ खेलना कतई पसंद नहीं था । उसने औझी का नाम स्कूल में जरुर लिखवाया था परन्तु औझी ने पिछले कई सालो से स्कूल देखा तक नहीं था ।
अब औझी का स्कूल बदल चुका था मां के साथ काम पर जाना उसकी पढ़ाई बन चुका था । रोज सुबह अपने घर के पिछवाड़े काम करती औझी की सुरीली आवाज़ कानो से टकराती । गोबर के कडें थोपती ,झाडू-बर्तन करती औझी मस्त हो कर गाती उसे लय ताल  या सुर का कोई ज्ञान नहीं था पर उसकी आवाज में सच्चाई और भक्ति थी , वह उन्मुक्त कंठ से गाती मानो  कोइ अलमस्त फकीर गा रहा हो उसकी स्वर लहरी बहुत देर तक वातावरण में गूंजती रहती ।
‘ मेरा मन धो देना प्रभु बिनती करु बार बार’ ।
किसी डाक्टर ने अपने टांस्फर के समय अपना पुराना सामान नौकरो में बांट दिया औझी की माॅ के हिस्से में में एक पुराने माडॅल का बड़ा सा रेडियो आया ,उसने औझी को वह रेड़ियो पकड़ाते हुये कहा ,
‘मरी काहे मेरे साथ ना चली ,चलती तो कितना कुछ पाती पता है वो जमुना की छोरी डाक्टरनी के सारे अच्छे कपड़े ले गई, तू चलती तो तेरा भला ना होता ,मरी को तो खेलने से फुरसत न मिले है ,लै धर ले ये ‘रेडुआ’  ।

पर औझी रेडियो पा कर जितनी खुश हुई शायद कपडे पा कर भी उतना खुश नहीं होती ।
 इतना बड़ा रेड़ियो पा कर औझी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा वह किसी को रेडियो छुने नहीं देती । उसने अपनी माॅ की चोरी से बड़े गर्व से हमें रेडियो दिखाया और बोली ‘‘पता है डाॅक्टर साहब ने दिया है ये ‘रेडुआ’ ।
उसके रेडियो को ‘रेडुआ’ कहने पर हम सब बहुत हसें । उसके रेड़ियो में किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई परन्तु उसके मनोभावो को समझते हुये मैने उसके रेडियो की तारीफ की तो उसका चेहरा खिल उठा ।
हमें निम्न वर्गीय कर्मचारीयो के बच्चों के साथ खेलने की मनाहीं थी ही साथ ही हमें हर बार यह सुनना पड़ता कि इतनी ‘बड़ी लड़की के साथ के खेलते हो ’।

दरअसल औझी हम सभी से उम्र में बड़ी थी परन्तु अल्हड़ बचपन कहाॅ किसी की बात मानता हैं हम खुद ही दौड़ कर उसे बुला लाते कभी वह पिछवाड़े गोबर के कंडे थोप रही होती तो कभी भैसों को नहलाती रहती हमारे बुलाने पर मुहॅ पर उंगली से चुप रहने का इशारा करती व चुपके से घर से भाग आती ।
औझी के पिता नहीं थे पर वो कभी पिताहीन होने का रोना नहीं रोती न शिकायत करती ,अलबत्ता जब किसी पिता को अपने बच्चें को प्यार करते देखती तो उसकी आखोें में उदासी छा जाती ।
हमारी कालोनी के पीछे नर्म घास का मैदान फैला हुआ था जंगली झाड़ीयो के झुरमुट और पेड़ो की कतारे थी , चूकिं हमारे इलाके में  सांप बहुत निकलते थे इसीलिये हमें कालोनी के पीछे वाली टेकड़ी पर जाने की इजाज़त नहीं थी किन्तु छुटटी के दिन हम बच्चें किसी की नहीं मानते पम्मू रितु पप्पू और मैं हम सब अपनी साईकल उठाते और निकल जाते घास के मैदान में घंटो साईकिल रेस करते । औझी का बहुत मन होता की वो भी साईकिल चलाये किन्तु मम्मी पापा के डर से उसे हम साई्किल नहीं देते थे ।
एक बार मौका मिलने पर मैनें उसे साईकिल पकड़ा दी । उसकी आखें चमक उठी ,और खुशी से उछल पड़ी ।
 औझी ने कुछ कहा नहीं पर आखों से कृतज्ञता टपक रही थी ।
उसने लपक कर साईकिल पकड़ी और जाने कितने देर तक चलाती रही हवा के झौंकोे से टकरा कर उसका चेहरा ताज़गी से भर उठता उसके खुले केश उसके चेहरे से टकरा रहे थे, किन्तु उसे हटाने की फुरसत उसे कहाॅ थी वो तो हवा से बातें कर रही थी । 
जब वह थक कर चूर हो गई तब मुझे साईकिल थमा कर ‘थांकू’ कहा और पलक झपकते ही  भाग खड़ी हुई ।

 थोडे दिनो बाद जाने क्यों अब औझी का हमारे साथ खेलना धीरे-धीरे कम होता गया मैंने सोचा की शायद घर में काम बड गया हो गया , मेरी परीक्षाए भी नजदीक आ रही थी मैं रितु ,पम्मू और पप्पू हम सब अपनी अपनी पड़ाई में जुट गये ।  हमारा खेलना धीरे -धीरे बंद हो गया परीक्षा के कारण कई दिनो तक औझी का ख्याल नहीं आया ।
परीक्षायें खत्म होते ही हमारी बैठक जमी सभी अपने अपने प्लान सुनाने लगे कोई किसी रिशतेदार की शादी में जा रहा था ,तो कोई अपनी ननिहाल जा रहा था ।
 हमें अब बस परीक्षा के नतीजों का इतिंजार था । 
नतीजे मिलने में अभी थोड़ा समय था इसीलिये हम सब रोज शाम को खेलते और औझी का इंतिजार करते ।
 उसके बिना खेल में मजा नहीं आता था, दोपहर को जब हम पाठक बाबू के पिछवाड़े से आम चुराते तब भी औझी की कमी बहुत सताती ,जब वो साथ होती तो हमें आम चुराने में कोई परेशानी नहीं होती थी ।
एक पत्थर से ही वो कई आम गिरा देती थी । एक शाम को जब हम सब टहल रहे थे सामने से औझी आती दिखाई दी हम सब लपक कर उसके पास पहुचें ।
‘क्यों रे औझी अब तक कहॅा थी हम सब तुझे कितना याद करते थे, ना पिट्ठू खेलने आई , ना आम तोड़ने ’।
हम लोग अपनी रौ में बके जा रहे थे ,जब सबने अपने मन की भड़ास निकाल ली तो वह धीरे से बोली  ।
‘अब हम डाक्टर बाबू के हियाॅ काम पर लग गये है ना, अब हम खेलने नहीं आ पायेगें ,डाक्टर बाबू नये नये आये है ना अभी उनके घर में सामान जमाना है ,अब तो हम काम पर लग गये है ना पर हम शनिवार को खेलने जरुर आयेगे क्योकी उस दिन डाक्टरं बाबू ‘किलब’ (क्लब) जाते है ’।

औझी बोलती रही लेकिन हमें उसका बोलना की अब वह खेलने नहीं आयेगी  अच्छा नहीं लग रहा था । 
थोड़ी देर बाद वह चली गई । धीरे-धीरे औझी का खेलना कम हो गया था  ,अब वह बहुत कम खेलने आती ,परन्तु जब भी आती उसमें मुझे एक ना एक परिवर्तन देखने मिलता ।
धीरे धीरे उसकी बातो के विषय बदलते जा रहे थे अब वह खुद भी काफी बदल गई थीअब उसे डाक्टरो के घर के काम वा उनके घर भाने लगे ।

अब उसकी त्वचा से धूल और गंदगी की परत हटने लगी ,उसके धूल और तेल में लिपटे बाल अब संवरने लगे थे पैरो मे चप्पले आ गई थी ।एक बार मैने उससे कहा,
‘औझी अब तुम पहले से कहीं ज्यादा अच्छी लगने लगी हो’
इस पर वो शरमा कर वो बोली ,
‘हाॅ डाक्टर साहब भी यही कहते है ,कहते है कि घर में बहुत सारे लोग आते है इसीलिये साफ सफाई से रहना’ ं।

अब हर त्यौहारेा पर उसे तोहफे मिलते ,वह बड़े गर्व से अपने रिशतेदारो को दिखाती ,अब उसकी माॅ का चिल्लाना कम हो गया था , क्योकी औझी एक कामकाजी  लड़की जो हो गई थी ।
अब औझी का मिलना एकदम कम हो गया था ,जिस डाक्टर के यहाॅ वह काम कर रही थी उसकी नई नई शादी हुई थी ,ओर उसकी पत्नी को घर मे अकेले डर लगता था इसीलिये अब औझी सारा समय उस डाक्टर के घर पर ही रहने लगी थी । पहले तो घर सोने के लिये जाती भी थी कन्तिु अब स्टोर रुम मे ही औझी का पंलग लगा दिया गया था अब जिस दिन डाक्टर की  छुट्टी होती उसी दिन वह जल्दी आती ।
औझी का तो जीने का तरीका ही बदल चुका था । अब जब कभी भी मिलती तो उसके पास बातो के लिये दो चार विषय होते जैसे कि,
‘पता है डाक्टर साहब के घर इतना बड़ा टी.वी है , मेम साहब ने मुझे बहुत सुंदर सलवार कमीज़ दी है, डाक्टर साहब कहते है कि मैं सुंदर हॅू ,इतना कह कर वह अक्सर मुझसे पूछ बैठती ’ क्यो मैं सुंदर हूॅ ना’।
ज़वाब में मैं उसे उपर से नीचे तक निहारती वह तो सचमुच सुंदर लगने लगी थी ।
जो लड़की कभी धूल में लिपटी ,बेतरतीब सी रहती थी ,अब उसे ‘मै कैसी लग रही हूॅ ’का ख्याल सताये रहता था  ।

उसकी अल्हड़ता का स्थान चपलता ने ले लिया था सहज लहजे में बाते करने वाली औझी अब बन बन कर बात करने लगी थी । उसके चारो तरफ एक भ्रमजाल सा फैलता जा रहा था ।
इस बार काफी दिनों औझी दिखाई नहीं दी  ं।
अब उसके पिछवाड़े उसकी माॅ कंडे थोपती ,या बर्तन साफ करती दिखाई देती । 
आखिर एक दिन मै ,पप्पू पम्मू और रितु ने उसकी माॅ से पूछ ही लिया ।
‘औझी कहाॅ हैं ,बहुत दिन से खेलने नही आई ’।

हमारी बातें सुनते ही बर्तन धोती हुई रमाबाई झटके के साथ उठी ,अपने पल्लू को समेटते हुये बड़े गर्व से बोली "अब औझी तुम्हारे साथ नां खेलेगी ,डाक्टर बाबू के हियाॅ काम करने लगी है, उनके हियाॅ ही रहती है "।
और लगभग धमकाते हुये बोली ‘तुम लोग बाबू साहब के बच्चे हो ,तुमरा काम है पढना लिखना काहे औझी को खेलने के लिये बुलाते हो ,अब वो डाक्टर बाबू के हियाॅ काम पर जाती है ,अब उसे खेलने के लिये ना बुलाना नहीं तो तुम्हारे माॅ बाप से शिकायत कर दूगीं ,समझ गये ना अब चलो फूटो हियाॅ से’।

औझी की माॅ का हमसे इस तरह से बाते करना हमें बहुत ही बुरा लगा ,हम सबने तय किया की अब हम औझी के यहाॅ नहीं जायेगें ं।
जल्दी ही हमारा रिजल्ट आ गया मैं और रितु अव्वल रहे थे किन्तु पम्मू और पप्पू अव्वल नहीं आ पाये पर इस बात की तस्सली थी की वह लुडके नहीं ।
फिर जल्दी ही सबने अपनी छुटटी का प्लान बना लिया मै अपनी बड़ी मौसी के यहाॅ नागपुर जा रही थी । पम्मू और पप्पू का किसी हिल स्टेशन पर जाने का प्लान बन रहा था । किन्तु औझी का कुछ और ही प्रोग्राम था वह डाक्टर साहब की पत्नी के मायके जा रही थी क्योंकी डाक्टर साहब की पत्नी गर्भवती थी ।

जाने के एक दिन पहले औझी मुझसे मिलने आयी और उत्साहपूर्वक मुझसे बोली ‘पता है , डाक्टर बाबू के मेमसाहब को बच्चा होने वाला है न इसी वास्ते हम उनके साथ उनके मायके जा रहे है और पता है कहाॅ जा रहे है ,मुम्बई ’।
बोलते समय उसका चेहरा खुशी से दमक रहा था । उसका उत्साह न टूट पाये इसीलिये मैंने अपनी खुशी जा़हिर की ‘अच्छा, जा रही हो ,कितने दिन बाद आओगी ,अच्छे से रहना। 
जो कुछ भी कहा वो सब बेमन से कहा न जाने क्यो उसका जाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था ।
खैर औझी चली गई हम सब भी गर्मी की छुटटी बिताने कही कहीं चली गये । जाने ये एक महिना कैसे बीत गया ,पता ही नही चला न ही औझी का ख्याल आया कभी भूले भटके ख्याल आता भी तो बस उत्सुकतावश ।

किन्तु वापसी के दौरान सारा समय औझी के बारे में सोचती रही पम्मू ,पप्पू नहीं जानते थे की औझी मुम्बई गई है ,उन्हे यह खबर सुनाने की यह उत्सुकता बड़ती जा रही थी ।
घर पहुंचते ही सबसे पहले मैने समानो का बोझा उतार फेंका और दौड़ कर पम्मू के पास पहुंची मुझे देख कर पम्मू पप्पू दोनो बहुत खुश हुये ,अपने बारे में बात करने या उनके बारे में पूछने के बजाये मै सीधे औझी के विषय पर आ गई ।

‘पता है औझी मुम्बई गई है ’ ‘हाॅ पता है’ पम्मू ने बहुत ही सहज ढ़ंग से कहा,‘तुम्हे कैसे पता ?’
 मैंने कहा । "तुम तो मुझ से पहले चली गई थी छुटटी पर ’ हाॅ पर पहले आ भी तो गई न ,‘हमारी कामवाली बाई उस डाक्टर के यहाॅ काम करने लगी है क्योकी औझी डाक्टर की पत्नी के साथ मायके गई है,जाने कब आयेगी ,मेरी मम्मी कह रही थी रीतु की मम्मी से की ‘एक जवान लड़की को पराये लोगो के साथ अंनजान जगह पर भेज कर रमाबाई ने ठीक नहीं किया’ ।
अच्छा तुम क्या कहती हो इस बारे में ,मैने पूछा ‘पता नही पर अगर वो चली भी गई तो क्या फर्क पड़ता है ,उसकी माॅ ने तो उसे नौकरानी बना ही दिया है’ ।
हमारी बाते अभी खत्म नहीं हुई थी पर पप्पू को आता देख कर हम चुप हो गये ,औझी की माॅ से अपमानित होने के बाद वह औझी के जिक्र से चिड़ने लगा था ।
 मुझे देखते ही बोला‘अरे तुम कब आई ,बहुत बोर हो गये थे यार ,चलो अब बोर होने से तो बचे ’ ।
पर मेरा ध्यान पप्पू की बातो की तरफ नहीे था ।

अभी स्कूल खुलने में थोड़ा समय था किन्तु 12वीे कक्षा होने के कारण ,अभी से हमारी व्यस्तता बड़ गई थी नई बुक्स खरीदनी थी ,अब दूसरी शिफट में स्कूल जाना था । थोड़े दिन की मस्ती के बाद हमारे स्कूल खुल गये ।
 ट्यूशन की व्यवस्था न होने के कारण हमारा ज्यादा समय पढ़ाई में ही जाता था ,पम्मू दसवी में थी र्बोड परीक्षा होंनें के कारण उसका भी खेलना कम हो गया था । हम अपनी पढ़ाई और स्कूल के दोस्त,सहेलियो की गतिविधियों में व्यस्त हो गये ।
किन्तु औझी का अब तक पता ना था ।उसे गये करीब तीन महिने हो गये थे ,तभी एक दिन पम्मू की नौकरानी ने बताया की डाक्टर साहब की बीबी अपने शिशु के साथ आ गई है ,साथ में औझी भी आ गई थी ।
 किन्तु अब वह पहचान नही आ रही थी पूरी बम्बईन हो गई खैर पम्मू की नौकरानी इस बात से खुश थी की औझी के आने के बाद भी उसे नहीे निकाला गया क्योकी अब वह डाक्टर साहब के बच्चे को दिन भर संभालती है ।
औझी को देखने की मेरी उत्सुकता लगातार बड़ती जा रही थी ।
मुझे लगा की वह हमसे मिलने जरुर आयेगी किन्तु वह नहीे आई,और उससे मिलने जाना जाने क्यो मुझे मेरी शान के खिलाफ लगा ।
इसी बीच हमारी कालोनी के माथुर अकंल जो की हेड क्लर्क थे,के बड़े बेटे जाॅय की शादी तय हो गई थी । इसी बीच एक दिन मुझे औझी दिखाई दी ,मुझे यकीन नहीे हो रहा था लग रहा था मानो उसका दूसरा जन्म हो गया हो।

तेल और धूल से चिपुड़ी हुई चोटी के जगह चमक मारती हुई सलीके से बांधी हुई केश राशि,साफ सुथरा परिधान निखरा हुआ रंग ,मैं उसे देखती रह गई 
आश्चर्य और ईर्ष्या के मिले जुले भाव मेरे मन में जाग उठे ,चाहा की खुद जा कर मिल आउ पर जाने क्यो मेरे स्वाभिमान ने मुझे रोक दिया ।
औझी के बदले रंग रुप के बारे में मैने पम्मू को बताया ,वो यकींन ही नही कर पाई ।
  रिशेप्शन  की तैयारी जोरो से चल रही थी । दोपहर तक काम में हाथ बटानें के बाद मैं और पम्मू घर आ गये आखिर हमें तय जो करना था की हम शाम को पार्टी में क्या पहनेगे ।

सजधज कर मैं और पम्मू थोड़ा पहले ही पहुच गये क्योकी हमारे सुपुर्द तोहफो की फेहरिस्त बनाने का काम था । पप्पू अपने दोस्तो के साथ भोजन की व्यवस्था देख रहा था । धीरे धीरे लोगों का आना शुरू हो गया मैं और पम्मू आते जाते लोगो की पोषाको को देख कर अपनी अपनी राय देते या कभी दिये हुये तोहफो का मूल्यांकन करते ।मेहमानो का आना जारी था और अब तो भीड़ भी बड़ने लगी थी । 
मैं सोचने लगी की न्यौता तो डाक्टरसाहब के गया ही होगा और वो आयेगें भी शायद औझी उनके साथ आयेगी उसे देखने का लोभ मै संवरण नहीं कर पा रही थी । मुझे ज्यादा देर प्रतिक्षा नहीं करनी पड़ी ।
डाक्टरसाहब अपनी पत्नी के साथ आये थे पीछे औझी थी हाथो में बड़ा सा गिफट पैक सभांले हुये । उसे देखते ही पप्पू ,पम्मू और मेरी नज़रे आपस मे टकराई ,हम सभी की आखों में आश्चर्य व जलन के मिश्रित भाव थे ।
सुनहरे पाड़ की गुलाबी साड़ी में उसकी उजली हो चुकी काया चमक रही थी उलटे पल्ले की साड़ी में औझी नवयौवना लग रही थी गले में मोतीयों की माला ,हाथ भर भर चूड़िया, होटों पर गुलाबी लिपस्टिक और खुले हुये लहराते बाल । 
किसी कोण से वह रमाबाई की लड़की नहीं लग रही थी । इतनी सुंदरता इतना लावण्य अब तक कहाॅ छुपा था, हमें तो अपनी आँखे पर विश्वास नहीं हो रहा था ।
जाने कितने ही युवको की निगाहें उस पर टिकी हुई थी लोगो की प्रतिक्रिया को समझते ही उसकी ग्रीवा गर्व से तन गई ।
बड़ी ही नज़ाकत से चलती हुई वह मेरे पास आई गिफ्ट का पैकेट थमाने के लिये बड़े उसके गोरे गोरे हाथों को देख कर मेरा मन अनायास ही ईर्ष्या से भर उठा । 
‘ कैसी हो " उसने बड़ी अदा से मुस्कुरा कर पूछा , ‘अच्छी हूूूॅ तुम कैसी हो "
 मेरे पूछने पर वह ईठला कर शायराना अंदाज में बोली ‘कैसी लग रही हूॅ मैं ,कहिये क्या ख्याल है ‘ ।
उसके इस अंदाज से मै हैरान रह गई क्या यह वही औझी है जो रेडियो को रेडुआ क्लब को किलब कहती थी । उसका रुप सौंदर्य उसकी शोखी सब उसका अतीत झुठला रहे थे ।
पार्टी खत्म होने मैं बहुत थक चुकी थी खाना खा कर हम सब घर चल दिये रास्ते में अचानक मेरे मुहॅ से निकल गया ‘औझी कितनी सुंदर लग रही थी ना’ । 
‘हूहॅ  बड़ी सुंदर लग रही थी हमें सब पता है उसके नखरे ,क्या क्या करती है तुझे पता है वो आटो वाला ‘राघव ’ है ना उसके साथ उसका चक्कर चल रहा है कल सोनू की मम्मी बता रही थी ’ पम्मू ने मुहॅ बिचका कर कहा । परन्तु इससे पहले की मैं उससे कुछ पूछती पप्पू ने उसे ड़ांट कर चुप करा दिया । जाते जाते पम्मू ने इशारा किया की बाकी बात वह कल बतायेगी ।
सारी रात मेरे ख्याल में औझी छाई रही  कभी धूल में सनी खेलती तो कभी साड़ी में लिपटी मुस्कुराती हुई ।
दूसरे दिन पम्मू ने मुझे बताया की औझी का चक्कर आटो चलाने वाले राघव से चल रहा है दोनो कालोनी के पीछे वाले टीले पर छुप छुप के मिलते है । 
राघव एक आवारा किस्म का लोफर लड़का था व किसी स्कूल का आटो चलाया करता ,नित नये बदलते हीरो के साथ साथ उसका रुप बदलता रहता था कभी आमिर खान तो कभी शाहरुख खान । 
राघव के साथ औझी का नाम जुड़ना मुझे कतई अच्छा नहीं लगा ,एसा लगा मानो औझी की सुंदरता को ग्रहण लग गया हो ।
अब औझी की और हमारी मुलाकात नहीं होती थी होती भी तो हम रास्ता बदल देते थे ।
फिर आये दिन औझी का नाम किसी नये लड़के के साथ सुनाई देने लगा ,कालोनी के लोग उसके चर्चे चटखारे ले ले कर करते । अब हमारे बीच औझी का जिक्र बंद हो चुका था ।
समय अपनी गति से बीतता गया मै काॅलेज पूरा करने के लिये षहर आ चुकी थी ।षहर की चकाचैध में भी कभी कभी औझी याद आ ही जाती । छुटटीयो में जब भी घर जाओ औेेेझी के बारे में सुनने मिलता इस बार सुना की जिस डाक्टर के यहाॅ औझी काम करती थी उसका ट्रांसफर हो गया था ।
फिर सुना की औझी नये डाक्टर के यहाॅ काम कर रही है । किन्तु इस बार जो सुना वह अच्छा नहीं लगा ,औझी की नई मालकिन ने उस पर चाल चलन अच्छा ना होने का आरोप लगाया वा काम से निकाल दिया ।
नतीजन औैझी फिलहाल काम नही कर रही थी । शानोशौकत में कई दिनों तक दिन बिताने के कारण औझी को घर रास नहीं आ रहा था । 
किसी नये अफसर के आते ही सबसे पहले काम की गुहार लगाने उसकी माॅ पहुॅच जाती ।
 किंतु हर मालिक तो एक सा नहीं होता ,लोग काम तो कराते पर कोई उसकी सुंदरता को शक की दृष्टि से देखता तो कोई बुरा व्यवहार करता ।
काफी बदनामी होने के कारण अकसर नई नौकरानी मिलते ही मेमसाहिब लोग औझी को चलता कर देती । धीरे धीरे औझी कुंठित होती गई ,उसका बदला हुआ रुप ही उसके लिये अभिशाप बन गया था ।
पर मुझे लगता कि ये कसूर औझी की सुंदरता का नहीं अपितु उसके चरित्र का था,उसकी बढ़ती हुई महत्वकंाक्षा ओर झूठी चाहतें ही उसका बुरा कर रही थी 

जब उसे काम मिलना बंद हो गया तो 
रमाबाई को एक ही रास्ता दिखाई दिया कि,औझी की शादी कर दे ।
 अब औझी के लिये वर की खोज की जा रही थी मैनें औझी से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की किन्तु मम्मी ने मुझे इसकी इजाज़त नहीं दी ।
फिर एक दिन मम्मी होस्टल मिलने आई तो उनसे पता चला की औझी की शादी हो गई है और उसका पति सरकारी स्कूल में चपरासी का काम करता है ।
सुन कर जाने क्यो मुझे अच्छा लगा एसा लगा मानो वह भ्रम और माया के जाल से मुक्त हो चुकी हो ,क्योकी रुप सारी जिं़दगी तो साथ नही दे सकता ना ही अमीरो की तरह जीने की अभिलाषा सच मे बदल सकती थी ।

मैने ग्रेजूयेष्न की डिग्री प्राप्त कर ली थी ,अब घर पर रह कर प्रतियोगी परीक्षाओ की तैयारी करना चाहती थी ।
जब मै घर आई तो पता चला की औझी गर्भवती है , उससे मिलना तो चाहती थी किन्तु मम्मी फिर ना मना कर दें यह सोच कर कुछ नही कहा ।
एक दिन शाम को औझी को देखा उसका उभरा हुआ पेट दूर से दिखाइ दे रहा था ,मै गाड़ी मे थी उस ने मेरी तरफ देखा और मुस्कुरा दी मुझे लगा अरे ये तो वही औझी है धूल में सनी , मैने खुशी से हाथ हिलाया ।
फिर वह दिन भी आया जब मुझे यह समाचार मिला की औझी ने एक स्वस्थ बच्ची को जन्म दिया है व मुझ से मिलना चाहती है ।
मुझे डर था की मम्मी ये बात ना सुन ले किन्तु मम्मी सुन चुकी थी मैने उनकी तरफ देखा जाने उन्होने मेरे चेहरे पर क्या भाव देखे मुझ से बोली ‘तुम्हारे मन के तार अभी तक जुड़े है औझी से , दो चार दिन रुक जाओ फिर चली जाना तुंरत जाना अच्छा नही , जाओ तो  उसकी बच्ची के लिये कुछ नए कपड़े  लेते जाना ’।
जैसे ही चार दिन बीते मैं औझी के घर चल दी मैने उसे अपने आने की खबर नहीे दी थी मै दरवाजे पर दस्तक देने ही वाली थी की उसकी वही आवाज़ कानो में पडी ‘मेरा मन धो देना प्रभु विनती करु बार बार ’ मै दरवाजा ठेल कर अदंर पहुची देखा ।

वह ‘बच्ची ’को बड़े प्यार से थपक रही थी  मुझे देख कर हड़बडा गई आवाज़ गले में फॅस गयी ‘अरे  तुम--आओ ,आओ ना बैठो ’ मुझे यकीन था कोई मुझ से मिलने आये न आये तुम जरुर आओगी ’ और मेरा हाथ पकड़ कर पलंग पर बैठा दिया ।
कुछ क्षणे की खामोशी के बाद मैने पूछा ‘कैसी हौ औझी ’ अच्छी हूॅ । ‘तुम्हारी बच्ची बहुत प्यारी है बिल्कुल तुम्हारी तरह ,देखना बड़ी हो कर तुम्हारी तरह ही लगेगी क्या नाम सोचा है इसके लिये, ‘हूहॅ औझी मानो नीदं में बोली ,अभी कुछ सोचा नहीे तुम बताओ न’।
‘नाम तो बहुत है औझी पर नाम के अनुरुप सब हो जाता तो क्या बात हैै’  और फिर कहते कहते लाख कोशिश के बाद भी मेरा लहजा सख्त हो गया
 ‘इसका भी नाम अपनी ही तरह कुछ रख देना तुम्ही पर तो गई है , तुम्हारी ही तरह खेलेगी और देखना तुमसे भी तेज़ दौड़ेगी ,और फिर तुम भी अपनी माॅ की तरह इसे किसी घर में काम करने भेज देना जहाॅ इसका बचपन बर्बाद हो जाये और नाम बदनाम ’ ।

जाने मैं इतना कैसे कह गइ, औझी का चेहरा मेरी इस प्रतिक्रिया से सफेद पड़ चुका था । आंखे लज्जा से झुक गई पैर के अगॅूठे से कच्चा फर्श कुरेदने लगी ।
मै उठी और घर से उसकी बच्ची के लिये जो कुछ लाई थी वहीं रख दिया व उठ खड़ी हुई ।
‘अच्छा मैं चलती हूॅ ’ कुछ क्षणों तक वह कुछ नही बोली फिर लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया फिर भभक कर रो पड़ी ।
मैने उसे रोने दिया जब तक की खाली न हो गई ।
मैने कहा ‘औझी  माॅ बनने का सौभाग्य मिला है तुम्हे पर माॅ का कृर्तव्य किस  तरह निभाना है ये अब तुम्हारे हाथ में है कुछ दिनों के आनंद के लिये जो अन्याय तुम ने खुद अपने साथ किया है वो इस बच्ची के साथ नही करना ,इसे यथार्थ की धरती पर सच्चे सुख से पालना ’।
 कुछ कहने की जरुरत नहीं थी वो जानती थी मेरा कटाक्ष किस लिये था ।
औझी ने आसुओ से भरा चेहरा उठाया उसकी आंखों मे चमक थी ,वो बोली ‘ हाॅ मै इसे वो बनाउगी जो मै बन सकती थी पर ना बन सकी इसे पढ़ाउगी कुछ बनाउगी ये दूसरी औझी नहीं बनेगी ,नहीे बनेगी ।
‘तुम चाहोगी तो एसा ही होगा ,अब मैं चलती हूॅ फिर आॅउगी ’ ।
कुछ देर बाद मै औझी के घर से लौट रही थी और मेरे कानो सें उसकी मीठी आवाज़ टकरा रही थी ,शायद वह बच्ची को थपकी दे रही थी ‘मेरा मन धो देना प्रभु ,बिनती करु बार बार ।

By
Mrs. Hakuna Matata


Comments