"अब्बा और मैं" "Abba aur main"

 "अब्बा और मैं "

 बात मेरे पहले बर्थडे की है, पापा बताते हैं कि 
अब्बा मेरे पहले  बर्थडे पर आए थे उन दिनों उनकी तारे गर्दिश में थे ।
उन्होंने मुझे गोद में उठाया खिलाया और मैं उनकी गोद में ही सो गई काफी देर तक वो मुझे लेकर घूमते रहे ,बस उसी दिन से यह सिलसिला आरंभ हो गया वह दिन में एक बार मुझे खिलाने जरूर आते थे ।
उनके मन मे ये बात घर कर गई थी कि,मुझे गोद मे उठाने के बाद से ही उनके दिन फिरे और ज़िन्दगी गुलज़ार होने लगी ।
अब इस पर मैं क्या कह सकती हूँ ।
मुझे बस इतना पता था कि,मैं उनके लिए खास हूँ ।


अब्बा अक्सर  मुझसे मिलने घर आते मेरे साथ खेलते थोड़ा वक्त बिताते और चले जाते ।
कभी चॉकलेट ,कभी रेवड़ी,कभी बिस्किट,कभी जलेबी कभी फल लाये और जाते जाते मेरी नन्ही हथेली पर 5 रु 10 रु का सिक्का रख जाते ।
पर आखिर "अब्बा" थे कौन 
तो आइये आपका अब्बा से परिचय करवा दूं ।
अब्बा का असल नाम था "जब्बार लाला" , मटन मार्किट में उनकी कुछ दुकानें थी, खेत थे और वह ठेकेदारी का काम भी किया करते थे ।
पापा कस्बे के प्रसिद्ध व प्रतिष्टित डॉक्टर थे, और यारों के यार थे।
एक बार अब्बा के बड़े बेटे ऐसे बीमार हुए की बिस्तर पकड़ लिया,बहुत इलाज करवाया पर कोई फायदा नही हुआ, तब अब्बा, उन्हें ले कर पापा के पास आये ,और देखते-देखते उनका बेटा चंगा हो गया,तब से वे पापा के मुरीद हो गए।
पापा की और उनकी उम्र में खासा अंतर था,पर दोनों की जमती थी ।
अब्बा जब भी घर आते, साथ कभी सब्जी-भाजी, चने,मक्का,गन्ना-गुड़ कुछ न कुछ लाते ।
जब भी वो आते  तो मैं अपनी तोतली भाषा में कहती 
"अब्बा मेले लिए क्या लाए" इस पर वह बड़े लाड़ से जो भी लाते और मुझे देते और कहते हैं
 "अरे मेरी बिटिया तू कह तो सही तुझे क्या चाहिए" ।
फिर मैं अपनी फरमाइशों  कि लिस्ट उन्हें पकड़ा देती तब मम्मी गुस्सा होकर कहती 
"बेटा ऐसे नहीं कहते इसे नहीं मांगते"
 पर "अब्बा" और मेरी बातें यूं ही चलती रहती ।
एक दिन अब्बा मुझे अपने घर ले गए और वहां मुझे एक बकरी का मेमना पसंद आ गया ।
 सुंदर ,सफेद गोरा गले में बंधी छोटी सी घंटी
वह  मुझे बहुत भा गया, मैंने अब्बा से कहा
 "अब्बा मुझे यह चाहिए '' , फिर क्या था, उसे मैं घर ले आई ,उसे देख कर मम्मी ने सर पीट लिया, 
मैं बड़ी शान से उस मेमने के गले में रस्सी बांध कर यूँ घर ले आई थी जैसे कोई शेर हो ।
ख़ैर उसे जल्दी ही वापस करवा दिया गया ।
पर अब्बा ने मुझसे वादा किया कि मैं उस मेमने से जब चाहे तब मिल सकती हूँ ।
अब्बा के घर मेरी किसी वी.आई.पी की तरह खातिर होती, जब भी मैं अब्बा की उंगली थामे उनके घर पहुँचती, तो अम्मी मेरे लिए मीठे गुलगुले बनाने में जुट जाती, छोटे भाई मेरे लिए नमकीन लेने चल देते । 
अब्बा के घर मैं ,मुझसे जलने वाला कोई नही था,बस सब प्यार ही देने वाले थे ।
ईद के दिन तो मेरी चांदी होती , पकवान की बात हो या तोहफों की या फिर "ईदी" की मेरी पांचो उंगलियां घी में और सर कड़ाही में होता।
फिर यूँ हुआ कि कुछ कुछ बदलने लगा ।
अब्बा का परिवार दूसरे गांव चला गया ।
यूँही दिन बीतते गए,अब्बा का आना कम हो गया,किन्तु स्नेह बना हुआ था।
मैं भी बड़ी होती गई, मम्मी से पूछा कि "अब अब्बा इत्ता कम क्यों आते है,तो मम्मी ने बताया कि उन्होंने किसी दूर दराज़ के गावँ में खेत ख़रीदे है,खेती के काम से अक्सर वहीं रहा करते है ।
मैं क्लास 3 में थी ,हम शहर आ गये , जीवन पटरी पर आते समय लगा, तब भी अब्बा 2-3 महीनों में एक-आध बार आते रहते ।
जब आते तो पापा से कहते "सुनो डॉक्टर मैं तो अपनी बिटिया से मिलने आता हूँ, इसी बहाने तुमसे भी मिल लेता हूं " ।
फिर मुझसे से ढेरों बातें करते ,स्कूल, सहेलियां ,गुड़िया  इत्यादि फिर जाते हुए मेरे हाँथो में कुछ रुपये पकड़ा देते ।
मैं 6 क्लास में पहुँच चुकी थी,अबकी आये तो ज्यादा बात नही की,गोद मे नहीँ बैठाया ,बस सर पर हाथ फेरा ,दुआएं दी और हमेशा की तरह हथेली में नोट रख दिये और कहा 
"अब बहुत कम आ पाऊंगा बिटिया, बहुत काम बढ़ गया है,तबियत भी ठीक नही रहती , अच्छा सुन बिटिया ,अब तुम बड़ी हो गई हो , खूब पढ़ो लिखो तरक्की करो ,और एक सुंदर से राजकुमार से शादी कर ससुराल चली जाओ,पर मुझे बुलाना जरूर अपनी शादी में "।
अब्बा की बात पर मैं बहुत हंसी ,अब्बा मैं तो अभी बहुत छोटी हूं ।
फिर धीरे धीरे बहुत समय बीत गया, अब्बा नहीं आये। 
मैं 10 वीं क्लास में थी ,एक दिन ट्यूशन से घर आई तो देखा डाइनिग टेबल पर सब्जियों का अंबार लगा हुआ था ।
पेड़े का डब्बा रखा हुआ था और उस डब्बे के ऊपर 100 का नोट रखा हुआ था,बिना एक पल गवांए मैं समझ गई कि ये अब्बा ही है, दौड़ कर बैठक ,बगीचा,और बाड़ी सब देख डाला ,कहीं कोई नज़र नहीँ आया ,तब मम्मी ने बताया कि अब्बा आये थे,लेट हो रहा था तो चले गए ,पापा उन्हें बस स्टैंड छोड़ने गए है ,तुम्हारे लिए कुछ लाये है ,कहते हुए मम्मी ने मुझे एक थैला मुझे पकड़ाया ।
पर वह सब वहीं छोड़ मैंने अपनी स्कूटी को बस स्टैंड की तरफ दौड़ा दिया ।
थोड़ा बहुत देखने के बाद, पापा मुझे दिखाई दिए,  मुझे देखते ही बोले अरे बेटा थोड़ा सा लेट हो गई तुम,
 तेरे अब्बा की बस तो अभी छूटी है, नाके तक चली जा,मिल जाएंगे ।
पापा की बात मानकर बस अड्डे से मैं नाके की तरफ चल दी । वहां पर बस रुकी हुई थी,
 मैंने अपनी स्कूटी रुकी और  बस में चढ़कर अब्बा को देखने लगी अब्बा किनारे वाली सीट पर बैठे हुए बाहर देख रहे थे ।
मैंने जोर उसे आवाज लगाई "अब्बा-अब्बा"
जाने कितने ही लोगों ने मुड़कर मेरी तरफ देखा और साथ ही अब्बा ने भी,वो हड़बड़ा कर सीट से उठे
 "अरे बिटिया तू यहां कैसे " , उन्होंने आश्चर्य और स्नेह से गदगद होते हुए  कहा । 
  ड्राइवर को कुछ पल रुकने की हिदायत देकर अब्बा मेरे साथ बस से नीचे उतर आए ।
वे मुझे करीब 4 साल बाद देख रहे थे, और मैं भी उन्हें कई अरसे बाद देख रही थी,इस बार अब्बा मुझे कुछ बूढ़े से दिखाई दिए ।
मैं लगभग उनके गले लग गई "अब्बा आप आए और मुझ से मिले बिना चले गए"
"अरे नहीं बिटिया तेरा बहुत इंतजार किया, पर बस छूट जाती ना , यह आखिरी बस थी ,और सुन तेरे लिए बहुत कुछ लाया हूं देखना और बताना कि तुझे कैसा लगा"खुश होते हुए  अब्बा ने कहा ।
 फिर उन्होंने मेरे सर पर हाथ फेरा दुआएं दी और फिर से हथेली में एक नोट रख दिया मैंने कहा 
"अब्बा आप तो घर पर रख आए हैं ना मेरे लिए पैसे फिर क्यों देते हैं"
" अरे मेरी बिटिया तुझे देख लिया उसी का सदका है , कितनी बड़ी हो गई है , खुदा तुझे हर बला से बचायें 
खूब खुश रहे",  अब पता नहीं कब आना हो , खैर 
अपना ख्याल रखना समझी ,
 कहते हुए भरी आंखों से अब्बा ने मेरी तरफ देखा और बस में चढ़ गए , बहुत देर तक हाथ हिलाते हुए बाय करते रहे ।
पहली बार मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा दिल टूट रहा है जैसे मेरी कोई प्रिय चीज मुझसे छूट रही है जैसे मेरे बचपन का खिलौना कोई मुझसे दूर होता जा रहा है कैसा मोह था यह ।
मन  में एक बात  महसूस हुई कि,अब शायद अब्बा से मिलना बहुत कम होगा, अन्यथा वह क्यों आते घर मेरे लिए इतना कुछ लेकर जब उन्हें आते ही रहना था ।
 भारी मन से मैं घर पहुंची अब्बा के लाये समान को बहुत देर  देखती रही उनके दिए नोट को बड़े हिदायत से डायरी के पन्ने में दबा कर रख दिया ।
 अब्बा मेरे लिए सलवार सूट का कपड़ा लाए थे चमकीला सा कपड़ा था ।  घर में ऐसे कपड़े कोई नहीं पहनता था हम सब हल्के कलर के कपड़े पहनते थे ।
पर मुझे याद है मैंने बड़े शौक से सलवार सूट सिलवाया और उसे पहना ।
समय अपनी गति से बीतता गया दसवीं के बाद 12 वीं और 12वीं के बाद कॉलेज पढ़ने के लिए मैं बाहर चली गई हॉस्टल में रहा करती थी ।
अब जीवन बदल सा गया था बचपन कहीं पीछे छूट गया था ।
बहुत सारी बातें अब यादों में बदलने लगी थी उनमें से एक अब्बा भी थे ।
बीते कई सालों से उनसे मुलाकात नहीं हुई थी उस तरफ से कोई खबर भी नहीं आई थी कभी-कभी अब्बा की याद आ जाया करती थे तो उनका चेहरा भी ज़ेहन में उभरता ।
कुर्ता और लुंगी पहने पैरों में महाराजा जूती डालें और सर पर टोपी लगाए वह अक्सर पान खाते रहते थे ।
इस बार जाने कितने बरस बीत गये अब्बा घर नहीँ आये ।
समय इतना बीत गया कि अब्बा अब बहुत कम याद आते ।

मेरी शादी तय हो चुकी थी, घर में शादी की तैयारी चल रही थी, गहमा गहमी और शोर शराबे के बीच मुझे अचानक अब्बा के हँसने की आवाज़ आई , मुझे लगा मेरे कान बज रहे है,इतने मेहमान है घर पर ,किसी और कि आवाज़ होगी 
पर इतने में ही मुझे ख़बर मिली कि अब्बा आये है ।
कुछ आश्चर्य कुछ झिझक के साथ मैं दालान की तरफ दौड़ी ।
देखा ,पापा और अब्बा गले मिल रहे थे , मुझे देखते ही पल भर को अब्बा छिड़के, मेरी तरफ बढ़ते हुए एक पल को रुके ,फिर अपने जेब मे हाथ डाल 100 का नोट निकाला और मेरा सदका उतरते हुए बोले," मेरी बिटिया ,कितनी बड़ी हो गई है, किसी की नज़र न लगे इसे" ।
फिर बोले,"बड़ी हो गई बिटिया ,बोला था न एक दिन, एक राजकुमार आ कर ले जाएगा तुझे, अब देख तूने तो मुझे बुलाया नहीं, पर तेरे पापा को याद रहा" ।
"अपने अब्बा को चाय नहीँ पिलाएगी क्या?"
मैं संकोच में जकड़ी हुई थी,मेरी ज़ुबान जैसे जम गई थी ।
किचिन में अब्बा के लिए चाय बनाते हुए मेरे मन ने बचपन से ले कर अब तक का जीवन मेरे सामने दोहरा दिया ।
संकोच थोड़ा कम हुआ, चाय ले कर मैं अब्बा के पास पहुँची, वो मम्मी और पापा से बतिया रहे थे ।
मुझे देख कर  बोले "आ बिटिया मेरे पास बैठ'"
 मैं उनके पास बैठी तो  उन्होंने मेरा हाथ में एक छोटी सी डिब्बी पकड़ा दी और मुझसे कहा
 "ले बिटिया,ये तेरे लिए,खोल कर देख ले,पसन्द न आये तो बदलवा दूंगा "।
मैंने डिबिया खोली तो देखा कि उसमें बड़ी प्यारी सोने की झुमकियाँ थी ।
मैंने मुस्कुरा कर उन्हें हाथों में लिया और कहा
"बहुत प्यारी है ये अब्बा ,शुक्रिया" इस पर अब बात पर अब्बा ठहाका मारकर हंसते हुए बोले "मेरी बिटिया सचमुच बड़ी हो गई है पहले जो चीज हक से मांगती थी अब उस बात के लिए शुक्रिया कह रही है ।
अच्छा बिटिया अब चलता हूं उनके ऐसा कहने पर पापा ने उन्हें बहुत रोका और कहा 
"अरे जब्बार ,रुको थोड़ा दो-तीन दिन बिटिया की शादी है,बाद में  चले जाना" ।
 लेकिन वह नहीं माने थोड़ा मान मनुहार के बाद कुछ घण्टों  के लिए रुके और चले गए ।
फिर और साल बीते अब्बा की कोई खबर नहीं थी ,और मैं अपने जीवन में इतनी व्यस्त थी कि मुझे किसी की खबर नहीं थी ।
एक दिन मम्मी का फोन आया ,झिझकते हुए उन्होंने बताया कि अब्बा अब इस दुनिया में नहीं रहे ।
 सुनकर तुरंत तो मुझे कुछ भी महसूस नहीं हुआ पर कुछ समय बाद  मेरी आंखों से आंसू गिरने लगे , बचपन के वो सारे पल आंखों के सामने गड्डमड्ड होने लगे ।
अब्बा के प्रति स्नेह और प्रेम से मेरा दिल भर आया और मैं भरभरा के रो पड़ी ।
 कौन थे अब्बा मेरे, क्यों वह मुझसे इतना प्यार करते थे, क्यों मैं उनके लिए इतनी कीमती थी, और वह मेरे लिए क्या थे
इन सारे सवालों का जवाब किसी के पास नहीं था मानवीय संवेदनाएं और मानवीय रिश्ते बहुत पेचीदा होते हैं ।
बेहतर है कि इन्हें समझने की बजाय इनमें जिया जाए ।

आज भी अब्बा की याद आती है ,और उनके दिए हुए झुमको को पहनकर मुझे महसूस होता है कि  अब्बा आज भी मेरी यादों में जिंदा है ।
उन झुमकों को पहन कर लगता है कि अब्बा के दुआओं वाले हाथ आज भी मेरे सर पर है ।

By 
मीता. एस. ठाकुर




Comments

Unknown said…
Heart touching 💜
Kamlesh Solanki said…
मीता, मैं जब जब तुम्हारी कहानियां पढ़ता हूं तब तक मैं रोता हूं सब कुछ मुझे दिखने लगता है
या तो मैं बहुत ज्यादा भावुक हूं या तुम्हारी लेखन शैली इतनी अच्छी कि तुम जज्बात को जुबान देना बखूबी जानती हो