क़ुरैशी सर Qureshi sir

चला जाता हूं हंसता खेलता 
मौज-ए-हवादिस से 
गर आसानियां हो तो 
जिंदगी दुश्वार हो जाए..!!

यह लफ्ज़ मेरी डायरी में सुनहरे अक्षरों से  लिखे हैं ,यह मुझे हिम्मत देते हैं, ताकत देते हैं, और यह बताते हैं कि जिंदगी आसान नहीं है और अगर आसान हो भी गई तो जीना दुश्वार हो जाएगा ।
मैं  एक दब्बू और शर्मीली और संकोची बच्ची थी, मेहमान घर आये तो छिप जाना ,क्लास में लास्ट बेंच पर या फिर ऐसी जगह बैठना ,जहाँ पर टीचर की नज़र बहुत कम जाती हो, मन ही मन प्रतियोगिताओं में भाग लेने की चाह रखना, और प्रत्यक्ष में भाग जाना ,बच्ची से जब किशोरी हुई तो अपने चारो और मैंने एक ढ़ाल सी बना ली,मेरे चेहरा सपाट रहता था और भँवे तनी हुई , अल्पभाषी और अंतर्मुखी थी मैं ।
काफी लोग मुझे घमंडी कहा करते थे, पर वास्तव में मैं घमंडी नही थी,बल्कि डरी हुई थी , लोगो की हंसी से,उनके तानो से , उनके व्यहवार से  ,दुर्भाग्य से मेरे आत्मविश्वास को जर्जर करने वालों में सर्वप्रथम नाम मेरे कुछ शिक्षकों का ही आता है ।
एक शिक्षक का जीवन मे क्या महत्व होता है,ये हज़ारो किताबे लिख कर भी समझाया नही जा सकता ,शिक्षक चाहे तो आपको बना दे चाहे तो मिटा दे..
हमारे माता -पिता हमें स्कूल भेजते है, हमें सौंप देते है शिक्षक के हाँथो में, जैसे कुम्हार के हाँथो में कोई अनगढ़ कच्ची मिट्टी सौंप देता है, उन्हें उम्मीद होती है ,विश्वास होता है कि शिक्षक उनके बच्चों को एक बेहतर इंसान बना देंगे ।
चाणक्य ने कहा था कि "शिक्षक निर्माता होता है
शिक्षक कभी साधारण नहीं होता, प्रलय और निर्माण उसकी गोद में खेलते हैं।”
अब ये उस शिक्षक पर है कि वह निर्माण करें या विध्वंश ।
मेरा भाग्य में ऐसे शिक्षक ही आये जिन्होंने मेरे नन्हे मन मे विध्वंश किया,किशोर होते मन में विष घोला, और मेरा आत्म सम्मान,गरिमा, सब को घायल किया ।

शिक्षक बनने के लिए क्या केवल एक डिग्री काफ़ी है,
मुझे तो लगता है कि शिक्षक के चरित्र,उसका पिछला जीवन, उसकी आदतें, उसकी मनोवृति ,सबकी जांच होनी चाहिए । 
क्या वह एक नंन्हे बालक को कुछ दे सकने के योग्य है,क्या उसमें निर्माता के गुण है, क्या उसमें ममत्व है
उसका निर्णय कौशल कैसा है,एक जीवन उसके सुपुर्द सौपने के पहले इन सब की जांच होनी चाहिए ।
ख़ैर, कौन देखता है ये सब ,हर साल रटे-रटाये प्रश्नों के उत्तर याद कर , जाने कितने लोग शिक्षक की डिग्री हासिल कर लेते है ।
मुझे तो खैर आरम्भ ही से ऐसे शिक्षक मिले जो विध्वंशक थे,जो निर्माता थे,माता थे,उनकी छाया मिली ही नही ।
 मैं 11वीं कक्षा में थी ऊर्जा से भरपूर , हर वक्त स्वप्न देखने वाली किशोरी , स्वप्न जिनमें मैं विजेता थी स्वप्न जिनमें में अव्वल थी , जो कुछ प्रत्यक्ष में हासिल नहीं कर पाती थी उनकी भरपुरी मेरे स्वप्न कर देते थे ।
मेरे मानस पटल पर कुछ बातें ऐसे अंकित थी मानों किसी ने पत्थर पर खोदकर कर लिख दिया हो ।
 "तुम कुछ नहीं कर सकती", "तुम कभी पास नहीं हो सकती", " तुमसे नहीँ हो पायेगा "।

 ऐसे ही ना जाने और कितने तीखे वाक्य थे जो हर पल मेरे आत्मविश्वास को छलनी करते थे ,मैं खड़ी होती तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसका देते थे ।
 जीवन यूं ही चल रहा था तीखे ताने ,बुरा व्यवहार ,पक्षपात यह सब मेरे स्कूली जीवन का एक बड़ा  हिस्सा रहा ।
11वीं कक्षा में पहुंचकर निर्णय लेना था कि आगे पढ़ना क्या है मुझे हमेशा से इतिहास बेहद पसंद रहा , मुझे इतिहास से प्यार था दूरदर्शन पर आने वाले शायद ही ऐसा कोई ऐतिहासिक धारावाहिक किया फिल्म रही होगी जो मुझसे छूटी होगी मेरे घर में ऐसी शायद ही कोई पुस्तक रही होगी जो मुझसे छूटी होगी । 11 वीं में  जियोग्राफी इकोनॉमिक्स में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी पर फ़िर भी इतिहास के खातिर मुझे यह दोनों सब्जेक्ट भी पढ़ने पड़ रहे थे ।
 और यहीं से शुरूआत हुई मेरे जीवन परिवर्तन की, मेरे व्यक्तित्व के परिवर्तन की,
और आगमन हुआ ,उस व्यक्ति का जिसने मेरे जीवन की दिशा को बदल दिया यानी कि "कुरैशी सर"
 मैं उनका इतना आदर करती थी कि,
 कभी उनका नाम भी नहीं जान पाई ना ,नाम पूछने की हिम्मत कर पाई  मैं नहीं जानती  कि वो कहाँ  है कैसे हैं बहुत कोशिश की लेकिन उनका पता नहीं मिल पाया ।
सर के होंठों पर हमेशा मुस्कुराहट रहती थी,और चेहरे पर सौम्य भाव, वे हमेशा सफारी सूट पहन करते थे ।
जितने प्रभावशाली दिखते थे,उतने ही सिंपल थे ।
क़ुरैशी सर हमें history पढ़ाया करते थे ।
क़ुरैशी सर के पढ़ाने का तरीका बहुत अद्भुत था पता नहीं किस तरह से पढ़ाते थे की पूरी कहानी आंखों के सामने पिक्चर के समान चल जाती थी । मुझे याद है ,उन्होंने मेरे एक उत्तर पर क्लास में तालियां बजवाई थी, उस पल मुझे यूँ लगा मानो, कोई बहुत बड़ी उपाधि मिल गई हो ।
फिर ऐसा कई बार हुआ ,धीमे धीमे ही सही खोया आत्मविश्वास वापस आ रहा था ।
 मुझे केवल उनके पीरियड का इंतजार रहता था । केवल उनका पढ़ाना मुझे भाता था ,मुझे लगता था कि पीरियड की घंटी कभी बजे ही ना और,वह दिनभर पढ़ाते रहें ।
उनके सवाल भी अजीबो गरीब होते थे जो कि, सिलेबस मैं नहीं मिलते थे किताबों में नहीं होते थे पर होते वह उस सब्जेक्ट के ही थे और मजे की बात यह है कि पूरी क्लास में केवल मैं होती थी जो अधिकतर सवालों के जवाब देती थी वह भी सही।
समय यूं ही गुजर रहा था हर बार की तरह स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम आरंभ होने लगे ।
 हर सप्ताहांत में कोई न कोई प्रतियोगिता होती । स्कूल में भी शिक्षक किसी राजनेता की तरह व्यवहार करते थे । सारे अच्छे स्पीकर ,प्रतिभावान छात्र, अच्छे खिलाड़ीयों को प्रभावशाली शिक्षक अपने हाउस में लेना चाहते थे ताकि हर साल उनके हाउस को 'बेस्ट हाउस" का अवार्ड मिल सके ।
उन छात्रों को कोई नहीं पूछता था जो कुछ करना चाहते थे पर कुछ करने के लिए उन्हें थोड़ी हिम्मत थोड़ी प्रोत्साहन और थोड़े निर्देशन की जरूरत थी।
सभी एक रेस में दौड़ रहे थे ,सभी अच्छे घोड़े पर दाम लगा रहे थे ।
मेरा लिखना कई लोगो को बुरा लग सकता है पर यही सच था।
 मेरे हाउस-मास्टर क़ुरैशी सर थे 
और मेरे हाउस में कोई भी अच्छा स्पीकर नहीं था ।
सप्ताहांत में भाषण प्रतियोगिता होनी थी,
क़ुरैशी सर ने मुझे बुलाया, बोले "मीता, इस शनिवार तत्कालीन भाषण प्रतियोगिता है, तैयारी कर लो"।
उनकी बात सुन कर मेरी सांसे थम गई ।
यह सब क्या बोल रहे हैं ,मेरा तो सर घूमने लगा ।
 मैं और भाषण प्रतियोगिता इतने लोगों के सामने असफल हो गई तो लोग क्या कहेंगे ,क्षण भर में हजारों विचार मेरे दिमाग मे छा गए ।
 प्रत्यक्ष में, मैं कुछ नहीं बोल पाई पर, मेरे चेहरे पर आने वाले भावों को सर ने बखूबी पढ़ लिया उन्होंने कहा जाओ, अगले पीरियड में आना तब तक सोच लो कि तुम्हें इस प्रतियोगिता में भाग लेना है या नहीं ,और उत्तर भी देना की क्यों तुम ये करना नहीँ चाहती" ।

मैं घबराहट के मारे सीधा प्ले ग्राउंड में जा कर बैठ गई,मेरी हथेलियां नर्वसनेस से भीग गई थी, थूक गले मे अटक गया था, मन पर हज़ारो तीर जैसे सवालों की बौछारें हो रही थी, आख़िर क्या सुझा सर को , क्यो मेरे ही पीछे भिड़े है हाथ धो कर ,क्यों कोई और उन्हें दिखाई नहीं देता ।

ख़ैर, समय सीमा समाप्त होते है , ही मैंने दृढ़ता से निर्णय लिया कि मैं सर को ना कह दूंगी ।
 मैं सर के पास पहुंची और कह दिया सर मैं प्रतियोगिता में भाग नहीं ले पाऊंगी मुझे माफ करें ।
 उन्होंने मुझे अपने सामने बैठाया और बोले, " ठीक है मुझे स्वीकार है ,पर यह भी बताओ कि भाग क्यों नहीं लोगी मुझे कारण जानना है" ।
 मैं क्या कहती , क्या कारण था ,क्यों मैं प्रतियोगिता में भाग नहीं लेना चाहती थी ,क्यों मैं डर रही थी, क्यों मेरे कदम पीछे हट रहे थे ,क्या कारण था मैं खुद नहीं जानती थी शायद कारण एक नहीं थे अनेक थे ।
शायद कारण प्रत्यक्ष में नहीं थे उनकी जड़ें मेरे अतीत में थी ।
उन्होंने फिर अपना सवाल दोहराया बताओ भाग क्यों नहीं लेना चाहती ।
मैंने हकलाते हुए जवाब दिया "सर अगर मैं नहीं बोल पाई मंच पर ,तो लोग क्या कहेंगे, वह हसेंगे मुझ पर ।
" और" उन्होंने आगे पूछा 
 सर मुझ में हिम्मत नहीं है
"और"
"मुझमें वो काबलियत नहीं है"
"और"
"सर मुझे डर लगता है"..

इतना बोलते बोलते मैं फफक फफक कर रो पड़ी ।
उन्होंने मुझे रोने दिया , मैं अपनी हथेलियों को मसोसती रही, पीड़ा के आवेग के कारण मेरा चेहरा बिगड़ रहा था,
गला अवरुद्ध था,और आंखे भर-भर आ रही थी ।
क़ुरैशी सर के बहुत अच्छे मित्र थे "राजपाल सर" जो कि जियोग्राफी पढ़ाया करते थे , उन्होंने मुझे डांट लगाई ,"क्या रोना धोना मचा रखा है ", 
क़ुरैशी सर ने उन्हें इशारा किया कि मुझे न टोके, न डांटे, पल भर को मुझे लगा की,क्या क़ुरैशी सर भी उन्हीं शिक्षकों में से है,जो कमज़ोर और बेबस विद्यार्थियों को रोता देख कर आनंदित होते है ।
पर ऐसा नहीँ था वह एक बहुत कुशल मनोवैज्ञानिक भी थे,मन की पीड़ा समझते भी थे और हरते भी थे ।
जब मेरा सुबकना कम हुआ तो उन्होंने किसी कुशल सर्जन की तरह मेरे दुखित व्यथित मन की परतें उधेड़ना आरम्भ किया।

मैंने भी अपने मन की पीड़ा का मवाद बह जाने दिया,
कि, किस तरह अपनी पढ़ाई और स्कूल की अन्य गतिविधियों से तालमेल बैठाने का सघर्ष करती मैं ,अक्सर शिक्षक-शिक्षिकाओं की उपेक्षा और अपमान का शिकार रही, किस तरह मुझे ये यकीन दिलाया गया कि, "तुम किसी काबिल नहीं" "लास्ट बेंचर किसी और विधा में कुशल नहीँ हो सकता " ।
स्कूल में आयोजित विद्यार्थियों के  कवि सम्मेलन में मेरी कविताओं को कोई सराहना नहीं मिली बल्कि हिंदी और संस्कृत के विद्वान शिक्षक ,"श्रीमान ब्रम्हदत आर्या" द्वारा कहा गया कि , "ये क्या लिखेगी कविता, ज़रूर किसी पत्रिका की चुरा ली होगी" ।
कितना अपमानित महसूस हुआ था मुझे ये सुन कर, एक शिक्षक का अपने छात्र को कुछ भी कहना पत्थर पर खुदाई की तरह होता है ।
 उन्होंने अपने शब्दों के निर्मम हथोड़े से मेरे ह्रदय पर जो कुछ लिखा,उसने मेरी इतनी हानि की ,कि कई सालों तक मैं कुछ लिखने की हिम्मत नहीँ कर पाई ।
वो कोई मौका नहीँ छोड़ते मुझे अपमानित करने का,जाने किस कुंठा से ग्रसित थे ।
हिंदी की क्लास में वे केवल व्याख्यान दिया करते थे, उत्तर हमें लिख कर आने होते थे, जिस का उत्तर उत्तम होता था,उसे ही सबको लिखना होता था ।
मेरे उत्तर और वाक्य संरचना पूरी क्लास में सबसे अलग होती थी और उत्तम भी, किंतु इस बात की मुझे सराहना कभी नही मिली, मिली तो अपमान जनक प्रतिक्रिया
कि, "कौन सी गाइड है तुम्हारे पास,कहाँ से उत्तर कॉपी कर के लाती हो" ।
कभी कभी तो लगता था कि वे स्वयं किसी हीन भावना से ग्रस्त थे ।
मैं अक्सर सोचती कि, क्या ये स्वयं पर बीती किसी ज्यादती का बदला ले रहे है,मुझ जैसे विद्यार्थियों से,क्यों सताते है,क्यों अपमान करते है, क्यों ज़रा भी नर्मियत नहीं बरतते ।
क्या सारा प्यार टॉपर्स के लिए ही था ।
इसी श्रृंखला में आते है "मिश्रा सर" इंग्लिश के शिक्षक और वाईस प्रिंसिपल भी, जिनके मुखाग्र से मैंने कभी इंग्लिश का कोई वाक्य नहीँ सुना ।

मुझे याद है ,वो मेरे स्कूल का पहला दिन था,
इंग्लिश पीरियड में मुझे बुलाया गया , चॉक पकड़ाई गई और इंग्लिश की भारी भरकम spelling लिखने को कहा गया, 5 स्पेलिंग में से 4 मैंनें सछि लिखी,किन्तु उसका कोई महत्व नही था,क्योंकि 5वीं स्पेलिंग गलत थी, बस फिर क्या था, "मिश्रा सर" किसी व्यवसायिक हंसोड़ की तरह बोर्ड़ की तरफ इशारा करते हुए पेट पकड़ पकड़ कर हंस रहे थे, उनकी इस बात से प्रेरित हो कर पूरी क्लास से हँसना शुरू कर दिया ।
मेरी रुलाई फूट पड़ी, सारे शरीर का खून मानो कानों के पास सिमट आया,मैं अपनी डूबती हुई धड़कन सुन सकती थी, मुझे लगा धरती फट जाये और मैं उसमें समा जाऊं , 
क्या गलत स्पेलिंग लिखना इतना बड़ा अपराध था ।
वे मेरे घुंघराले बालों की एक लट को उंगली में उमेठते हुए वे बोले "लड़की तुझे स्पेलिंग लिखने को कहा था,तूने तो ए-से-जेड तक लिख मारा , चल आज से तू ही इंग्लिश पढ़ाएगी, अब तू इतनी ज्ञानी जो है " ।
उस पूरे दिन मेरी आँखें नम रही नए स्कूल का वो पहला दिन मैं कभी नही भूल पाई ।
मेरे लिए समय वहीँ ठहर गया था, मैं किसी से नज़रें मिला कर बात नही कर पाती थी ।
मिश्रा सर यहीं पर नही रुके,वे गाहे-बगाहे मेरा मज़ाक बनाते ,पूरी क्लास को हँसाते ,मेरे इलावा उनकी फ़ेहरिस्त में कुछ और लड़कियां भी थी , जिनकी मानसिक और भावनात्मक स्थिति उनके दुर्व्यवहार के कारण शायद मेरी ही तरह ज़र्ज़र थी ।
 बाकी लड़के-लड़कियां कहते "मिश्रा सर कितने फनी है न, कितना हँसाते है," ।
कितने संवेदन हीन थे वे सभी ,हुंह।
फिर आती है "चूँकि शाह मैडम"
मैं जानती हूँ, वो बहुतों की फेवरेट थी, पर मेरी नहीं
मेरी नज़रों में  सही शिक्षक  वो था जो गिरतों को उठा दे, संभाले, निर्देशन दे ,प्यार दे ।
वो बेहद स्ट्रिक्ट थी, उनके कई डायलॉग मुझे अभी तक याद है "you dumb", blank faces ,इत्यादि ।
वो उनकी ही प्यारी थी जो क्लास के टॉपर थे।उनकी तरफ से निर्देशन देना, उठाना, प्रोत्साहित करना तो
जैसे बिरलों को ही मिलता था ।
कुछ शिक्षक केवल "क्रीम ऑफ द क्लास" के लिए ही उपलब्ध होते थे , "चूँकि शाह मैड़म, राव सर,ब्रह्मदत्त आर्य सर,मिश्रा सर, ये ऐसे शिक्षक थे, जो उन सभी छात्रों के लिए एक आदर्श थे,जो अव्वल छात्रों की श्रेणी में आते थे।

हर हाउस से 3 छात्र ही प्रतियोगिता में भाग ले सकते थे और इन 3 स्थानों पर दावेदारी उनकी ही होती थी,जो शिक्षकों के प्रिय होते थे,प्रतिभावान होते थे ।
मुझ जैसो की बारी तो आने के पहले ही ख़त्म हो जाती थी 
ख़ैर.....
जाने ये सारी बातें मैंनें कैसे सर को बता दी , वो ज़रूर कोई जादू जानते थे । वे जानते थे कि मरहम लगाने से पहले ज़ख्म की सफाई ज़रूरी होती है ।
उन्होंने मेरी तमाम बातें सुनी बहुत कुछ समझाया 
बहुत काउन्सलिंग की, कहा कि, तुम्हें किसी को कुछ साबित नहीं करना है ,तुम्हें सबसे पहले खुद को पहचानना  होगा  । तुम्हें हर बात में डर लगता है, मरने में भी डर लगता है,और जीने में भी डरती हो, ज़रा देखो,तुम कितना मर-मर कर जी रही हो ।। 
उठो ये धूल झाड़ो ,आने वाले अवसरों को पहचानों ,डर डर के जीना भी कोई जीना है,असफल होने से क्यों डरती हो, फिर उन्होंने बड़े ज़हीन अंदाज़ में एक शेर सुनाया 

" गिरते हैं शहसवार  ही मैदान-ए-जंग में, 
वो तिफ़्ल  क्या गिरे जो घुटनों के बल चले" ।

और केवल उस दिन ही नहीं हर दिन उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया, प्रतियोगिता के दिन जब मैं मंच पर खड़ी हुई,तो एकबारगी लगा कि कहीं लड़खड़ा कर गिर न जांऊ, पर नहीं , मुझे सर का मुझ पर विश्वास कायम रखना था ।वो विश्वास जो उन्होंने मुझ में दिखाया था, 
हॉल विद्यार्थियों और शिक्षकों से भरा हुआ था , तेजी से धड़कते दिल को संभालते हुए मैंने चिट-बाउल से चिट उठाई,तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में जो विषय मुझे मिला था वह था " भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है" ।
मैंने अपनी दृष्टि सर के ऊपर टिकाई, मानो कोई दूसरा और वहां हो ही न, और विषय के अंतर्गत वही सब बोला जो सर से क्लास के दौरान सीखा समझा था ।
भाषण के पश्चात तालियों की आवाज़ से मेरी तन्द्रा भंग हुई , "ओह ,मैं सफल हुई,मैंने अपने डर को हराया,मैंने उन तमाम लोगो को गलत साबित किया, जो मुझे किसी लायक नही समझते थे " ।
मैंने क़ुरैशी सर की तरफ देखा, उनके चेहरे पर एक शानदार मुस्कुराहट थी ,जैसे वह कह रहे हो "मुझे तो पहले से ही पता था कि,"तुम कर सकती हो" ।
मैंने आर्य सर की तरफ भी देखा,उनके चेहरे के भाव ऐसे थे जैसे कह रहे हो "ये क्या हुआ ,ये डरपोक,हीन भावना से ग्रसित लड़की ,अचानक कैसे उठ खड़ी हुई "।
ख़ैर उसके बाद ऐसी कई प्रतियोगितायें हुई ,कई बार मैं विजेता रही,अब मेरी एक पहचान थी । मेरा खोया आत्मविश्वास लौट आया था ।
वो स्कूल का अंतिम वर्ष था 12वीं की प्रेपरेशन लीव शुरू हो चुकी थी,मेरा मन बहुत भारी हो रहा था ,अब सर के साथ छूट जाएगा ,अब कौन गाइड करेगा मुझे ।
हम सब सहेलियां सर के पास गई,सबने अपनी डायरी में उनसे कुछ लिखवाया ।

मेरी डायरी में लिखा था...

मीता ,

हमेशा याद रखना,जीवन में प्रतिभा होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है,उद्देश्य का होना ।
अगर जीवन मे उद्देश्य नहीँ, तो प्रतिभा का होना व्यर्थ है ।
स्वयं पर विश्वास रखो,उद्देश्य साधो और चल पड़ो ,परेशानियों से घबराओ नहीँ, उन्हें एक मौका समझो।

ये तुम्हारे लिये:-

चला जाता हूं हंसता खेलता 
मौज-ए-हवादिस से 
गर आसानियां हो तो 
जिंदगी दुश्वार हो जाए..!!

काश ,उन सभी विद्यार्थियों के पास ,क़ुरैशी सर होते
जो आज भी अपनी कमजोरियों और दूसरों ज्यादतियों के
बीच संघर्ष कर रहे है ।

सच है कि एक शिक्षक विद्यार्थी को बना भी सकता है,और बिगाड़ भी सकता है ।
और सर ने मुझे बना दिया ।

Mrs Hakuna Matata

Comments

Kamlesh Solanki said…
आपकी लेखन शैली के तो हम पहले से मुरीद है, लेकिन वक़्त के साथ साथ इतनी अच्छी लेखिका हो गयी हो तुम कि शब्दो में बयां करना मुश्किल है, इतने सटीक मुहावरे, उपमा अलंकार का इस्तेमाल, सही शब्दो का चयन, गागर में सागर भरने की विधा, अपने जज़्बात को जुबान देना और इतनी साफ़गोई, वाह, कमाल करती हो मीता, Iam highly impressed
Paritosh said…
अंत भला तो सब भला।
क्या हुआ क्या बीत गया काश कि इसको बदला जा सकता।
लेखन शैली पर हम कुछ टिप्पणी कर सकें इसके लिए पहले हमें इस लायक होना होगा लेकिन एक पाठक और एक विचारक के नाते पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि एक प्रेरणादायी लेख है।
गाहे बगाहे अक़्सर हम ऐसे लोगों की पसंद को ध्यान में रखकर कुछ करते या लिखते हैं जिनकी पसंद हमे वास्तव में पता ही नहीं होतीं। यही वजह है कि हम खुद की पसंद को किनारे करके उन्हें खुश करने की कोशिश करते हैं या उनसे प्रशंसा पाने की कोशिश। शायद मेरे कहे अनकहे शब्द कुरैशी सर से थोड़ा मेल खाते हैं।