हर खिडकी और दरवाजे पर माटे मोटे परदे डाल रखे थे पर जाने ये बर्फीली हवा कहां से अदरं आने का रास्ता निकाल लेती है ।
अभी बस 8 ही बज रहे थे, लाइट जा चुकी थी, सूरज न निकलने पर अभी भी रात होने का भ्रम हो रहा था ।
पिछले आधा घण्टे से में आगंन में हो रही खटपट सुन रही थी जरुर अम्मा होगी यह सोच कर में मुस्कुरा दी ।
हड्डियां जमा देने वाली ठंड़ में भी अम्मा आंगन में कुर्सी डाल उस पर पेर समेट कर बैठ जाती ,मानो सूरज को निकलने पर मजबूर ही कर देंगी ।
मैंने कई बार खिडकी से देखा था ,की अम्मा हाथ में चाय का कप लिये अक्सर हमारे दरवाजे पर निहारते रहती ।
हमें इस घर में आये करीब दो तीन माह हो चुके थे ,मकान मालिक के परिवार की सबसे वरिष्ठ सदस्य
अम्मा ही थी ,मकान में आते ही घर व्यवस्थित करने का काम आरम्भ हो गया ।
अम्मा बडी उत्सुकता से दरवाजे पर खडी अपनी बघेली भाषा में जाने क्या क्या कहती रही, मैं उनकी भाषा नही समझ पाई बस मुस्कुरा कई बार उनसे भीतर आने का आग्रह किया पर वह भीतर नहीं बैठी बस आदी के सर पर हाथ फैर कर चली गई ।
आंगन मे रखी कुर्सी अम्मा केे बैठने का स्थाई
स्थान था और आकर्षण का केन्द्र था "आदी" ।
" आदी" अभी डेढ़ वर्ष का ही था ,पर इतना चपल चंचल की बस पूछो ही मत, अम्मा को मुझ से शिकायत रहती की ,मैं उसे आंगन में खेलने नही देती, परतु उसे आँगन में खेलने देने का मतलब होता मुसीबत को न्यौता देना ।
वह कभी नल खुला छोड़ देता तो ,कभी गेट खोल कर बाहर चला जाता, तो कभी पौधो की पत्तियां तोड़ देता,
कुछ नही तो अम्मा की कुर्सी के चक्कर लगाता और कुर्सी पर चढ़ने या झूलने का प्रयास करता और गिर कर स्वयं को चोट लगा बैठता ।
सुबह सुबह मुझे इतना काम होता की मैं उस ले कर आँगन में बैठ नहीं पाती और उसे अकेला छोड़ने का तो सवाल ही नही था ।
अतः मैंने सुबह उसका बाहर निकलना बंद कर दिया ,इससे अम्मा को बहुत निराशा हुई ,वह अक्सर हमारे घर से बाहर निकलने का इंतजार करती ,और मेरे दिखाई दे जाने पर कहती "अरे बहुरिया कबहुँ कबहुँ बहिरे आ जाओ करा,हमारे साथ बईठा, बात करो करा" ।
कभी आदी की एक झलक मिल जाती तो जोर से उसे पुकार लगाती ‘ आवा नाती आवा’ और उनकी आवाज सुनते ही आदी दौड़ कर खिडकी से लगे सोफे पर चढ़ जाता और जाने कौन सी भाषा में अम्मा से बातें करता ।
अम्मा ने कभी उसे नाम से नही बुलाया बस नाती ही कहा करती थी ।
नये किरायेदार से उनकी अपेक्षा थी की वो सुबह सुबह बाहर निकले ,गुनगुनी घूप का आनंद लेते हुये उनसे बाते करे ,घर परिवार की जानकारी दे ।
मुझसे अक्सर सवाल करती मसलन '"दुलहिन, बेटा तुम्हार माईक कंहा है, परिवार मा केतने जन हें ?
परन्तु मेरे पास इतना वक्त नहीं होता था की, सुबह की गुनगुनी धूप का आनंद लेने में अम्मा का साथ दूं ।
वह जब भी मुझसे शिकायत करती कि, मैं बाहर क्यों नही निकलती हूं तो मैं खिसियानी सी हसीे हँस कर अपने काम की मजबूरी का रोना रो देती ।
अम्मा अपने बेटे के घर पर ही रहती थी, बब्बा यानि उनके पति गांव में रहते थे ,शहर की हवा उन्हे रास नही आती थी ।
अम्मा का भरा पूरा परिवार था नाती पोतों से भरा हुआ ,किंतु लगभग सभी बचपन की सीमा को लांघ चुके थे ।
परिवार में उनका पूरा ख्याल रखा जाता था, परंतु शायद वे सवांद के नये आयाम तलाश रही थी ।
कुछ नए रिश्ते तलाश रहीं थी ।
इसीलिये उनकी नजरें मुझे और "आदी" को ढूंढती
रहती ,मुझसे तो खैर उन्हे निराशा ही हाथ लगी, पर "आदी" की एक मुस्कुराहट से वह खिल उठती ।
उसे एसे निहारती मानो अपने सभी बच्चों के छुटपन की छवि उसमें देख रही हो ,उसके घुँघराले बालों की लटों को संवारते हुए कहती कि, "लड़िका के बाल केतने सुन्दर हें, घुंघराले और बिल्कुल काले हें जइसे कन्हैया होय" ।
आदी उनकी भाषा समझ नहीं पाता, किंतु उनका स्नेह उसकी समझ में आता था उनके जरा से हंसने पर वह शरमा कर कभी इठला कर अपने भावों को अभिव्यक्ति करता ।
जब भी वो कहती कि,"तुम्हार लड़िका बहुत नीक लागत है जैसे किसन कन्हइया होय" ,ऐसा सुन कर मुझे "आदी " की माँ होने पर गर्व होता ।
कभी कभी मुझे आत्मग्लानी सताती की क्यों मैं "आदी" को बाहर अम्मा के साथ खेलने के लिये नहीं छोड़ देती ।
फिर सोचती की ये ठंड खत्म हो जाये फिर "आदी" को बाहर खेलने दूंगी ,मकानमालिक से कंहूगी की सामने का खुरदुरा आगंन सिमेंटेड करवा दें ,
परन्तु मेरी कोई योजना काम नहीं कर पाई ।
" आदी" का बाहर निकलना लगभग बंद ही था ,इतनी ठंड पड़ रही थी कि, बस बर्फबारी की ही कमी थी ,सूरज देवता के दर्शन भी देर से हो रहे थे ,वह भी एक दम क्षीण सी धूप के साथ ।
परन्तु पाला पड़े या जाड़ा अम्मा को सवेरे आगंन में
हाज़िरी देनी ही होती थी ।
एक दिन सुबह "आदी" के बहुत ज़िद करने पर मैं उसे पूरी तरह ऊनी कपड़ों से ढ़क कर बाहर ले गई, तो देखा अम्मा आगंन मैं बैठी आग ताप रही थी ।
अम्मा को देखते ही "आदी" मचल गया और "आदी" को देख अम्मा की आखों में चमक आ गई, इसीलिये मैं भी आग के पास कुर्सी डाल कर बैठ गई ,जलती हुई आग को छेड़ने पर उड़ती हुई चिंगारी को देख कर आदी रोमांचित हो रहा था ।
यह देख कर उसे खुश करने की गरज से अम्मा बहुत देर तक आग को छेड़ती रही ,फिर शुरू हुआ उनकी बातों का सिलसिला ।
उनकी भाषा को मैं जितना समझ पाई उसका यही सार था कि, अम्मा को बैठना बिठाना ,बतियाना,बहुत पसंद था ,शहर की जिंदगी उन्हें बेमानी लगती थी ।
न बोलना ना बताना , पड़ोसी एक दूसरे को पहचानते तक नहीं थे ।
उन्हे तो अपने गावँ के पीपल की छाँव और रोज अपने आगंन की धूप में पड़ोसनों के साथ बेठ कर बातें करना बहुत याद आता था ।
उनके लिये तो मानो सारा गांव ही उनका परिवार था ,परंतु यहाँ
किसके पास इतना समय था की उनके उपर अपना थोड़ा सा समय खर्च करता ।
शहर की जिंदगी की रफतार पकड़ने के लिये अम्मा बूढ़ी
हो चुकी थी ।
वह दुखी नही थी खुश थी ,बस थोड़ा अकेली थी ।
पढ़ी लिखी थी नहीं की पढ़ कर अपना समय बिता लेती।
राम नाम के जाप की भी ज्यादा लगन उन्हें थी नहीं ।
अलसुबह ही पूजा पाठ से फुरसत हो जाती, फिर सबुह की चाय से ले कर नाशता और दोपहर का खाना सभी आगंन में ही होता ।
इस पूरे समय को वह बहुत अच्छी तरह काटती ,कभी सामने की सड़क की आवाजाही और स्कूल जाते
बच्चों को देख कर
खुश होती तो ,कभी कभी चिड़ियों को दाना डालती ,फिर कभी आगंन को बुहारती ,कभी तुलसी के सूखे पत्ते हटाती ।अखबार वाला, दूध वाला सभी के साथ उनकी रोज की
बातें होती थी ।
परंतु जिसका उनको सबसे ज्यादा इंतजा़र रहता वह था "आदी " ।
जैसे ही दरवाजा किर्र की आवाज के साथ खुलता अम्मा लगभग चिल्ला ही उठती ‘ आवा नाती आवा’ और आदी फुदक कर अम्मा की गोद में चला जाता ,आदी अपनी टूटी फुटी भाषा में उनसे बहूत कुछ कहता रहता, फिर वह उसकी उंगली पकड़ कर क्यारी के हर फूल पौधे से उसे परिचित करवाती ।
एक दिन उनके पास खेलत हुये वह जोर से चिलाया ‘ दादी.......’अम्मा दादी शब्द
सुन कर खुशी से रो ही दी एसा लगा मानो उन्हे किसी ने पहचान दे दी हो ,उन्होने आदी के सिर पर हाथ फेरते हुये ढ़ेरो आर्शीवाद दे दिये।
उसके बाद तो आदी मानो "अम्मा" के लिये धूप का टुकडा बन गया ,और अम्मा आदी के लिये स्नेहिन पीपल की छाया ,देखते ही देखते आदी दो वर्प का हो गया ।
अब मुझे अम्मा की ‘ आवा नाती आवा’ की गुहार उतनी ही अपनी और प्राकृतिक लगती जितनी की चिडियों की चहचाहट या आगंन में निकली धूप ।
अम्मा और आदी का सवांद और प्यार बढ़ता रहा साथ ही हमारे भविप्य की योजना भी बनती रही ।
शीघ्र ही हमने अपना घर खरीद लिया ,अपनी छत और अपने
आँगन का सपना तो पूरा हुआ ,किंतु इस घर को छोड कर जाने का दुख भी कम नही था ।
एक-एक करके घर का सामान बंधता रहा और अम्मा कातर
भाव से बस देखती रही।
जल्दी ही सारा समान नये घर में चला गया ।
सभी लोगों
से विदा लेनी बाकी थी ,सभी मिले व नये घर के विषय में बाते करते रहे , परंतु अम्मा आगंन के एक कोने में कुर्सी डाल कर बैठी बार बार अपनी भर आई आंखों
को पोछ रही थी ।
मैं "आदी" को ले कर उनके पास गई तो बिना एक पल
गवाएं ,वो भीगे स्वर में बोली ‘आवा नाती आवा ’ आदी तुरंत चला गया उसे प्यार करने और आशीर्वाद
देने के पश्चात अम्मा ने अपनी धोती का छोर खोल कर उसमें से एक मुढा तुढा 100 रुपये का नोट निकाला,और मुझे पकड़ाते हुये बोली " नाती के लाने कुछ खरीद देई ,लड़िका का दुल्हिन जरूर देखा लई जाओ करय,एखर बहुत सुध आओ करी।
कबहुँ कबहुँ मिलय आ जाओ करया ।
फिर जब तक हमारी गाड़ी कालोनी से ओझल नहीं हो गई अम्मा हमें निहारती रही ।
इस नये घर में सब कुछ अच्छा और नया था ।
सारे दोस्त और रिशतेदार आते जाते रहते थे परंतु निस्वार्थ भाव से कोई नही आता लोगो की आवाजाही के बावजूद भी घर में एक सूनापन सा पसरा हुआ था ।
यहां ना तो किसी को हमारे जागने का इंतजार होता ना ही कोई दरवाजे पर टकटकी बाधें हमारे चेहरे को देखने के लिये ललायित रहता ।
और यह सब महसूस करने का मतलब ये था कि मैं अम्मा को मिस कर रही थी ,लगता अभी आवाज आयेगी
‘आवा नाती आवा’.।
दूसरे दिन मैने मन ही मन कुछ सोचा और सुबह ही "आदी"
दूसरे दिन मैने मन ही मन कुछ सोचा और सुबह ही "आदी"
को ले कर अम्मा के घर की और निकल पड़ी ।
मैं जानती थी की चाहे सारा मोहल्ला सो रहा हो लेकिन अम्मा तो जाग ही गई होगी ।
मुझे अम्मा दूर से ही दिखाई दे गई ,उनकी पीठ मेरी तरफ थी इसीलिये वह मुझे नही देख पाई ,मैं गेट तक पहुंची ही थी की वह पलटी और मुझे देख कर ख़ुशी से मानो दोहरी हो गई ,कभी मुझे देखती कभी आदी को शायद
उन्हें अपनी आँखों पर विशवास नही हो रहा था ,भरी आँखों से अटकते स्वर में अपनी बाँहो को फैला कर बस यही कह पाई ‘ "आवा नाती आवा" ,इतना सुनना था की आदी दौड कर उनके अंक में समा गया , वह बारम्बार उसके सर पर हाथ फेरते कहती रही "केतना बड़ा होइगा है, खूब खुश रहा बेटा , जुग जुग जिया बेटा" ।
उनके और आदी के चेहरे के भावों को देख कर मैं मुस्कुरा दी।
निसन्देह ये सुबह बहुत सुंदर थी ।
By
Meeta s Thakur
Aka
Mrs . Hamuna.Matata
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